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पुरस्कार ( सम्मान मे गभित और अपमान मे दुखित होना) २० प्रज्ञा ( चमत्कारिणी वृद्धि के होने पर गर्व तथा उसके अभाव मे खेद), २१ अज्ञान (तपस्यादि करने पर भी ज्ञान प्राप्ति न होना), २२ अदर्शन ( अनेक मतो के श्रवण से स्वधर्म मे श्रद्धा का अस्थिर हो जाना) ।
षष्ठ अध्याय श्रमण-जीवन
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संयम - आत्मा का शुद्धावस्था में स्थिर रहना, सयम या चारित्र है । परिणामो की विशुद्धि के तारतम्य (न्यूनाधिकता) की अपेक्षा से संयम के ५ भेद है १ – १ सामायिक, २ छेदोपस्थापना ३ परिहारविशुद्धि ४ सूक्ष्मसम्पराय ५ यथाख्यात ।
समभाव मे स्थिर रहने के लिए समस्त सावद्य ( सदोष ) प्रवृत्तियो का त्याग करना सामायिक है । प्रथम छोटी दीक्षा लेने के वाद विशिष्ट श्रुत का अभ्यास कर चुकने पर विशेष शुद्धि के निमित्त जो जीवनपर्यन्त के लिए पुन दीक्षा ली जाती है अथवा दीक्षा में दोप उत्पन्न हो जाने पर उसका छेद कर फिर नवीनरूप मे जो दीक्षा का आरोपण किया जाता है, वह छेदोपस्थापना है । जिसमे विशिष्ट प्रकार के तप प्रधान आचार का पालन किया जाता है, वह परिहारविशुद्धि है । जिसमे क्रोधादि कपायो का उदय तो नही होता, केवल लोभ का अंश अतिसूक्ष्मरूप मे रहता है, वह सूक्ष्मसम्पराय है | जिसमे किसी भी कपाय का उदय बिल्कुल नही रहता, वह यथाख्यात अर्थात वीतरागसंयम है ।
तप - वासनाओ को क्षीण करने तथा समुचित आध्यात्मिकवल की साधना के लिए शरीर, इन्द्रियो और मन को जिन-जिन उपायो से तपाया जाता है, वे सभी तप है ।
तप के दो भेद है- बाह्यतप तथा आभ्यन्तरतप ।
बाह्यतप- बाह्यतप ये छह भेद है- १ अनशन, २. उनोदरी, ३ वृत्तिसक्षेप ४ रसपरित्याग, ५ कायक्लेश, ६ प्रतिसंलीनता |
मर्यादित समय तक या जीवन के अन्त तक सव प्रकार के भोजनपान का त्याग करना अनशन है। भूख से कम खाना उनोदरी तप है । विविध भोज्य वस्तुओं के सेवन के लोभ को कम करना वृत्तिसक्षेप है । घी, दूध आदि तथा मद्य-मधु आदि विकार पैदा करने वाले विग्गइय रसो
१. स्थानाग, ४२८, पृ० ३०६, ३०७ ।