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________________ १९२ ] जैन-अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास १०. एक माह में तीनवार मायास्थान का सेवन करने वाला। ११ राजपिण्ड का सेवन करने वाला। १२ स्वेच्छानुसार प्राणातिपात करने वाला। १३. , मृपावाद करने वाला। १४. , अदत्तादान करने वाला। १५ , व्यवधानरहित पृथ्वी पर स्थान, आसन, कार्योत्सर्ग तथा स्वाध्यायादि करने वाला । १६. सचित्तपृथ्वी अथवा शिला पर एवं कीटयुक्त काष्ठ पर स्थान, शयन तथा आसन करने वाला। १७ जीवसहित, बीजसहित तथा हरितवनस्पतिसहित स्थान पर आसनादि करने वाला। १८ स्वेच्छानुसार मूल, कन्द, त्वचा, प्रवाल, पुष्प, फल, हरितशाकादि का भोजन करने वाला। १९ एक वर्ष के भीतर १० वार उदकलेप करने वाला। २० एक वर्ष के भीतर १० बार मायास्थान का सेवन करने वाला। २१ शीतल जल से व्याप्त हाथो द्वारा भोजन ग्रहण करने वाला । श्रमणधर्म अंगशास्त्र मे जैन-साधु की जीवन-चर्या का अतीव विराट् एवं तलस्पर्शी वर्णन है। वास्तव मे समस्त अंगशास्त्र का केन्द्रबिन्दु श्रमण जीवन ही है। श्रमणधर्म मे महाव्रत का अत्यधिक महत्व है। क्योकि श्रमण की समस्त जीवनचर्या का मुख्य उद्देश्य महानतो की पूर्ण साधना है। श्रमणधर्म के रूप मे जिन समिति गुप्ति, धर्म, परोपहजय, संयम, तप तथा प्रतिमाओ का निर्देश किया गया है, वे सब महावत की साधना के ही अंग है। महावीर ने केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद सबसे प्रथम श्रमणो के महानतो का ही उपदेश दिया था।' १. आचाराग २, १५, २९ ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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