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जैन-अगशास्त्र के अनुभार मानव-व्यक्तित्व का विकास
उपासक की ११ प्रतिमा
प्रतिमा-उपासक घर मे रह कर जिन व्रतों का पालन करता है उन्हे गृहीधर्म अथवा सावयधम्म (श्रावकवर्म) कहा जाता है। यह बात नितन्ता सत्य है कि कोई भी व्यक्ति घर में रह कर धर्मसाधना यथार्थरीति से नहीं कर सकता। क्योकि गृहस्थी के झभट उसके मन को स्थिर नही रहने देते । अत मन की एकाग्रता के लिए यह उचित माना गया कि वह घर से दूर किसी धर्मस्थान मे जा कर उपासक धर्म को निर्दोपरूप से पालन करने का प्रयत्न करे। जैनागम मे उपयुक्त धर्मस्थान को पोसहसाला (पौषधशाला) कहा गया है।
पौपधशाला उपासक-धर्म के पालन करने का निर्वाध स्थान है। उपासक अपने कुटुम्ब का भार ज्येष्ठपुत्र के ऊपर डाल कर सभी सासारिक कार्यो से निश्चिन्त हो कर इस पौषधशाला में रह कर आत्मजागरण मे तत्पर हो जाता है। यहाँ पर आने के बाद वह अपने कुटुम्ब से पूर्णरूप से संबंध-त्याग करने का अभ्यास करता है। पौपवशाला का जीवन गृहस्थ तथा साधुजीवन के बीच की कड़ी है। यहाँ आ कर उपासक सबसे पहिले उस भूमि का अच्छी तरह प्रतिलेखन प्रमार्जन करता है, जहाँ उसे निवास करना है । इसके बाद वह जीवजन्तु रहित भूमि को भलीभॉति देखभाल कर प्रमार्जन साफ कर लेता है, जहाँ उसे मलप्रक्षेपादि कार्यो से जाना पड़ता है। पौषधशाला मे वह दर्भ या कठोर काष्ठ की शय्या पर सोता है और संपूर्ण समय गृहस्थ के कर्तव्यपालन करने तथा आत्मध्यान मे व्यतीत करता है।'
उपासक पौषधशाला मे जा कर अणुव्रतो तथा शिक्षाव्रती के अतिरिक्त जिन प्रतिजाओ को ग्रहण करता है। उन्हे पडिमा (प्रतिमा) कहा गया है। उपासक की ये प्रतिमाएं ११ है, जिनके नाम निम्न प्रकार है-४
१ उपासकदशाग, १, ७, पृ० २२ । २. उपासकदगांग, १, १०, पृ० २६ । ३. जो श्रमण की उपासना करते है, वे उपासक कहलाते है । उपासको की
प्रतिना उपासकप्रतिमा है। समवायाग (अभयदेववृत्ति) पृ० १९ अ । ४. उपासकदशाग १, ११, पृ० २६ ।