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________________ पचम अध्याय · उपासक-जीवन [ १६३ १३. दवग्गिदावणया (दावाग्निदाप)--जंगल मे आग लगाना । १४ सरदहतलायसोसणया (सरोह्रदतडागशोपण)-अनापसनाप खेती करने के निमित्त से तालाव आदि जलाशयो को सुखाना । १५. असईजणपोसणया ( असतीजनपोपण) वेश्याकर्म द्वारा धनोपार्जन के निमित्त कुलटा आदि स्त्रियो का पालन-पोषण करना। अनर्थदण्डविरमण-मनुप्य यदि अपने जीवन को विवेकशून्य एवं प्रमत्त रखता है तो विना प्रयोजन भी हिसादि कर बैठता है। निष्प्रयोजन पापाचरण अनर्थदण्ड है। उपासक इस अनर्थदण्ड से विरक्त रहता है। जैनागमो मे अनर्थदण्ड के चार भेद किए गये है.-१ अपध्यानाचरित, २. प्रमादाचरित, ३. हिंस्र प्रदान ४. पापकर्मोपदेश । खोटेध्यान-पूर्वक किया गया आचरण अपध्यानाचरित है। प्रमादपूर्वक किया गया आचरण प्रमादाचरित है। हिंसादि पापकार्यो मे सहायक शस्त्रो का प्रदान करना हिस्रप्रदान है । तथा पापकार्यों का उपदेश देना पापाकर्मोपदेश है । व्रती उपासक इन चार प्रकार के तथा अन्य प्रकार के भी व्यर्थ पाप-पूर्ण कार्यो का त्यागी होता है। वह कामोत्पादक वार्तालाप भी नहीं करता, अपने शरीर के अवयवो द्वारा कुचेष्टा नहीं करता, असम्बद्धअसत्य एवं बहुत बकवाद नहीं करता, हिसा के साधनो का कार्य मे प्रयोग नहीं करता और आवश्यकता से अधिक जीवनोपयोगी वस्तुओ का संग्रह नही करता। इस व्रत के पाच अतिचार है१. कन्दप्पे (कन्दर्प)-कामोत्पादक वार्तालाप करना । २ कुक्कुइए (कौत्कुच्य)-शरीर के अवयवो की कुचेप्टाओ द्वारा हँसी मजाक करना। १. उपासकदशाग, (अभयदेवसूत्रवृत्ति) १, ६ पृ० १६, १७ । २. हिंसा दो प्रकार की है- अर्थदण्ड, (सप्रयोजन) अनर्थदण्ड, (निष्प्रयोजन) समवायाग २
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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