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पचम अध्याय : उपासक-जीवन
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मगर आसक्ति को कम करने के लिए उसकी मर्यादा अवश्य की जा सकती है | अनियन्त्रित जीवन पशुजीवन है । वल्कि उससे भी निकृष्ट है, क्योकि पशु भी अपना जीवन कुछ तो मर्यादित रखते ही है । इस प्रकार । का अमर्यादित जीवन न अपने लिए हितकर है, न दूसरो के लिए | अनिन्त्रित भोगासक्ति संग्रहवद्धि को उत्तेजित करती है। संग्रह बुद्धि परिग्रह का जाल बुनती है । परिग्रह का जाल ज्यो- ज्यो फैलता है; त्यो-त्यों हिंसा, द्वेष, घृणा, असत्य, चौर्य, आदि पापो की परम्परा लम्बी होती जाती है । अतएव श्रमणसंस्कृति गृहस्थ के लिए भोगासक्ति कम करने और उसके उपभोग परिभोग मे आने वाले भोजन, पानी, वस्त्र आदि पदार्थों के प्रकार एवं संख्या को मर्यादित करने का विधान करती है । उक्त व्रत के द्वारा पंचम अरणुव्रत मे परिमित किए गए परिग्रह को ओर भी परिमित कर अहिसा की भावना को प्रवल एवं विस्तृत बनाया जाता है ।
इस व्रत का उद्देश्य दैनिक जीवन की अन्न-वस्त्रादि वस्तुओ तथा उनकी प्राप्ति के लिए किये जाने वाले प्रतिदिन के व्यावसायिक कार्यो का आवश्यकता से अधिक स्वीकार नही करना है। उपभोग- परिभोग के दो भेद है - भोजन तथा कर्म ।
भोजन में वाह्य तथा आभ्यन्तर दोनो प्रकार के समस्त भोगयोग्य पदार्थों का अन्तर्भाव हो जाता है । भोजन - सम्वन्धी अतिचार पांच है
१. सचिताहारे ( सचित्ताहार ) - पृथ्वी, जल तथा वनस्पतिकाय वाले जीवशरीरो का सचेतनरूप में भक्षरण करना ।
२ सचित्तपविद्धाहारे (सचित्तप्रतिवद्धाहार ) - वीज, गुठली आदि सचेतन वस्तु के सहित फलादि का भक्षण करना ।
३ अप्पउलिओसहिभक्खरगया ( अप्रज्वलितऔषधिभक्षण) अग्नि के द्वारा असंस्कृत तडुलादि का भक्षण करना ।
४ दुप्पउलिओसहिभक्खणया ( दुष्पक्वऔषधिभक्षण ) - अग्नि के द्वारा अर्द्धसंस्कृत या दुप्पक्व तंडुलादि का भक्षण करना ।