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जैन-अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास चरण के लिए गमनागमनादि क्षेत्र को विस्तृत करना जैनगृहस्थ के लिए निपिद्ध है । दिग्व्रत मे कर्मक्षेत्र की मर्यादा बाँधी जाती है। उस निश्चित सीमा से बाहर जा कर हिसा, असत्य आदि पापाचरण का पूर्ण त्याग दिग्वत का लक्ष्य है। ___ यह व्रत मनुष्य की लोभवृत्ति पर अंकुश रखता है। मनुष्य व्यापार आदि सासारिक कार्यों के लिए दूर दूर तक जाता है तथा वहाँ की प्रजा का शोषण करता है । जिस किसी प्रकार से धन कमाना ही जव मनुष्य का लक्ष्य हो जाता है, तो एक प्रकार से लूटने की मनोवृत्ति उसमे पैदा हो जाती है। जैनधर्म का सूक्ष्म आचारशास्त्र इस प्रकार की मनोवृत्ति मे भी पाप देखता है । वस्तुत पाप है भी । शोपण से बढ़कर और क्या पाप होगा? दिग्वत इस पाप से बचा सकता है। ___ इस व्रत के स्वीकार करने वाले उपासक को किसी भी परिस्थिति मे की गई दिशाओ की मर्यादा का न तो विस्मरण करना चाहिए और न ही किसी दिशा-विदिशा मे मर्यादित क्षेत्र को वढाना चाहिए । इस व्रत के पाच अतिचार कहे गए है---१
१ उडढदिसिपमाणाइक्कमे (उर्ध्वदिकप्रमाणातिक्रम) २ अहोदिसिपमाणाइक्कमे (अधोदिकप्रमाणातिक्रम) ३ तिरियदिसिपमाणाइक्कमे (तिर्यदिकप्रमाणातिक्रम) ४ खित्तवुड्ढी (क्षेत्रवृद्धि) ५ सइअन्तरद्धा (स्मृत्यन्तर्धान) ऊपर नीचे तथा चारों ओर दिशाओ मे किए गये परिमाण का अतिक्रमण करना क्रमश प्रथम तीन दिग्वत के अतिचार है। आवश्यकता पड जाने पर पूर्वनिश्चित क्षेत्र की सीमा में वृद्धि कर लेना चतुर्थ अतिचार है । तथा सीमाओ के परिमाण को भूल जाना पाँचवाँ अतिचार है।
उपभोगपरिभोगपरिमाणवत-जीवन भोग से वधा है। जब तक जीवनं है, तब तक भोग का सर्वथा त्याग तो नही किया जा सकता।
१. उपासकदगाग (अभयदेववृत्ति) १, ६ पृ० १४ ।