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जैन-अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास २ भातिसमाणे (भ्रातृसमान), ३ मित्तसमाणे (मित्रसमान), ४ सवत्तिसमाणे (सपत्निसमान)।
जिन उपासको मे, साधु के प्रति भक्ति, श्रद्धा, स्नेह एवं सेवा-भावना माता-पिता के समान, भाई के समान, मित्र के समान तथा सपत्नि (सौत) के समान क्रमशः हीन से हीनतर होती चली जाती है वे उपासक क्रमश मातृपितृ-समान, भात-समान, मित्र-समान तथा सपत्नि-समान श्रमणोपासक कहलाते है।'
उपदेश ग्रहण करने की शक्ति, मन की चंचलता आदि को ध्यान में रख कर श्रमणोपासक के चार भेद किए गए है-१ अद्घागसमाणे, (आदर्शसमान), २ पडागसमाणे (पताकासमान), ठाणुसमाणे (स्थाणुसमान) ३ खरकण्टअसमाणे (खरकटकसमान)। ___ जो उपासक स्वच्छ दर्पण की तरह धर्मोपदेश को यथार्थरूप में ग्रहण कर लेता है, वह आदर्शसमान श्रमणोपासक है । जिस उपासक का मन पताका (ध्वजा) की तरह चचल रहता है, वह पताका-समान श्रमणोपासक है। जो उपासक अपने दुराग्रह के कारण स्थाणु (लकडी के खम्भे) की तरह कभी भी नम्र स्वभाव वाला नहीं होता, वह स्थाणुसमान श्रमणोपासक है । तथा जो उपासक उपदेशक के प्रति तीक्ष्ण काँटो की तरह वेधने वाले दुर्वचन का प्रयोग करता है, वह खरकटक समान श्रमणोपासक है।
स्थानाग मे उपासक-अवस्था की ज्येष्ठता एवं कनिष्ठता आदि को ध्यान मे रखकर उपासक के चार भेद किए गए है
१. रायणिये समणोवासगे महाकम्मे महाकिरिए अणायावी असमिते धम्मस्स अणाराहते (रात्निक-श्रमणोपासक-महाकर्म-महाक्रिय-अना तापी असमित-धर्मस्यानाराधक.)-जो उपासक-अवस्था मे ज्येष्ठ होकर भी कर्मवन्धन के कारणभूत प्रमादादि से परिपूर्ण शरीरादिक की महान् क्रिया एव कर्म करता है, अल्पश्रद्धा होने के कारण शीतादि कष्टो को सहन नहीं करता, गमन; भोजन, भापण आदि मे असावधान रहता है
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१. स्थानाग, ३२१, पृ० २३०-२३१ (ब) २. वही, पृ० २३०-२३२ (ब)