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________________ चतुर्थ अध्याय · मानव-व्यक्तित्व का विकास [ १३५ साधु को न जीवन का मोह रहता है और न मृत्यु का भय, न इस लोक मे उसे आसक्ति होती है और न परलोक मे । मुख्य रूप से वह शुद्धोपयोग में रहता है और गौणरूप से शुभोपयोग मे, परन्तु अशुभोपयोग मे वह कभी नहीं उतर कर आता । उसके अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, ये पाच महाव्रत जीवन-पर्यन्त के लिए होते है और वे होते है, मन-वचन-काय से । हिसा, असत्य आदि का दुर्भाव, वह न मन मे रखता है न वचन मे और न शरीर मे । इतनी बड़ी पवित्रता हैसाधु-जीवन की । अत पाँचवे पद मे "णमो लोए सव्वसाहूण" कहते हुए संसार के समस्त साधुओ को नमस्कार किया गया है। श्रमण-जीवन में क्षाति (क्षमा) मुक्ति निर्लोभता, आर्जव (मन की सरलता), मार्दव (मन की कोमलता), लाघव (परिग्रह का त्याग) सत्य, संयम, तप, त्याग (पदार्थों के प्रति मोह, कामना आदि का त्याग) तथा ब्रह्मचर्यवास इन दस धर्मों का अत्यधिक महत्त्व है। इसी कारण ये श्रमण-धर्म कहे गए हैं। समवायाग मूत्र मे जो अनगार के २७ गुण वताए गए है। वे श्रमणजीवन का पूर्ण प्रतिनिधित्व करते हैं । वे २७ गुण निम्न प्रकार है ५--हिंसादि पाँच पापो से पूर्ण विरमण (निवृत्ति) ५-स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियो का पूर्ण निग्रह (निग्रह) ४-क्रोध, मान, माया तथा लोभरूप कपायो का त्याग । ३-भावसत्य, करण-सत्य तथा योग-सत्य | भावनाओ की विशुद्धि भावसत्य है। आचरण की विशुद्धि करणसत्य है तथा मन, वचन एवं कार्य के प्रयोग की विशुद्धि योग-सत्य है। २-क्षमा एवं विरागता। ३-मन, वचन तथा काय का समाहरण (संक्षेप) करना । ३-सम्यग्ज्ञान (सम्यग्दर्शन, सत्यश्रद्धा) तथा सम्यक्चरित्र-सम्पन्नता। २-कप्टसहिष्णुता एवं मरणातिक सहिष्णुता। १. स्थानांगमूत्र ३८६ २. समवायाग १०. ३. समवायाग २७.
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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