________________
१३४ ] जैन-अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास आचार्य का पद उपाध्याय से अलग रखना पडा । यद्यपि कभी-कभी आचार्य और उपाध्याय पद आवश्यकता पड़ जाने पर एक ही व्यक्ति ग्रहण करता है। उपाध्याय अन्य साधुओं की तरह आचार्य के पूर्ण अनुशासन मे रहता है और उनको ही आज्ञानुसार अध्यापन का कार्य किया करता है । उपाध्याय के साधु होने के कारण वह साधु-जीवन के समस्त कर्तव्यो का निर्दोषरूप से पालन करता है।
स्थानागसूत्र मे अध्यापन करने वाले आचार्य (उपाध्याय) के चार भेद वताए गए है -
१ उद्देशनाचार्य, २ वाचनाचार्य, ३ उभयाचार्य,
४. धर्माचार्य। जो आचार्य अंगादि शास्त्रो का सव्याख्या अध्यापन करते हैं, वे उद्देशनाचार्य कहलाते है। जो केवल अंगादि शास्त्रो के वाचन का अभ्यास कराते है, अथवा वाचन कर दूसरो को सुनाते है, वे वाचनाचार्य कहलाते है । जो उपयुक्त दोनो प्रकार के कार्य करते है वे उभयाचार्य कहलाते है। उक्त तीनो प्रकार के कार्यों से रहित हो कर जो धर्म का उपदेश देते है वे धर्माचार्य कहे जाते है। साधु
श्रमण-जीवन की सबसे प्रथम अवस्था साधु है । संसार से विरक्त व्यक्ति जब किसी आचार्य के निकट प्रव्रज्या धारण करता है, तो वह साधु-संघ मे सम्मिलित हो जाता है। उसे साधुजीवन के कर्तव्यो का पूर्णरूप से पालन करना, उपाध्याय के निकट जानाभ्यास करना और सघ के आचार्य के पूर्ण अनुशासन मे रहना आवश्यक होता है। साधु का अर्थ है-साधक । साधना करने वाला साधक होता है । साधु मोक्ष-मार्ग की साधना करता है । साधु का पद बड़े महत्त्व का है। साधु सर्व-विरतिरूप साधना का पथ का प्रयम यात्री है। यही उपाध्याय आचार्य और अरिहंत तक पहुँचता है और अन्त मे सिद्ध वन जाता है। १ स्थानाग सूत्र, ३२० तथा सूत्रवृत्ति (अभयदेव) पृ० २२८ २३०.