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तृतीय अध्याय : जैन-तत्त्वज्ञान
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___ जैनधर्म में महावीर ईश्वर के अवतार नहीं है, किन्तु वे केवल मानव ही है, जिन्होने अपने सत्प्रयत्नो द्वारा समस्त कर्मों से मुक्ति पा कर परमात्म-पद को प्राप्त किया है। उन्हे नित्यवद्ध तथा नित्यमुक्त ईश्वर कभी नही कहा गया, क्योकि नित्य-ईश्वर को इस सस्कृति मे कोई स्थान नहीं है । नित्यमुक्त ईश्वर को न मानने मे एक बाधा उपस्थित हो सकती है कि "इस समस्त सृष्टि का निर्माण एव व्यवस्था कौन करेगा" _____ उपयुक्त प्रश्न का उत्तर सूत्रकृतांग मे बहुत विस्तार के साथ दिया गया है। कोई कहते है कि किसी देवता के द्वारा यह लोक बनाया गया है, और दूसरे लोग कहते है कि ब्रह्मा ने यह लोक बनाया है।' ईश्वरकारणवादी कहते है कि जीव, अजीव, सुख तथा दुख से युक्त यह लोक ईश्वरकृत है और साख्यवादी कहते है कि यह लोक प्रधानादिकृत है। कोई अन्यतीर्थी कहते है कि विष्णु ने इस लोक को बनाया है। किसी का कहना है कि यमराज ने माया द्वारा इसका निर्माण किया है । कोई ब्राह्मण-श्रमण ऐसा भी कहते है कि यह जगत् अण्डे से उत्पन्न हुआ है। पूर्वोक्तवादी अपनी इच्छा से जगत को किया हुआ बतलाते है, किन्तु वे वस्तुस्वरूप को नहीं जानते, क्योकि यह जगत् कभी भी अनित्य नहीं है।
उपयुक्त कथन से यह सिद्ध है कि जगत् अनादि एव अनन्त है, अत इस जगत को बनाने के लिए किसी सृष्टिकर्तारूप ईश्वरादि के मानने की आवश्यकता नही है।
जैनसंस्कृति के अनुसार जो भी प्राणी त्याग और तपस्या के मार्ग पर चल कर अपने आत्मविकास की पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है, वह
१. २.
सूत्रकृताग, १, १, ३, ५ वही, १.१ ३.६. "प्रकृति से महान् (बुद्धितत्त्व) उत्पन्न होता है, महान् से अहकार, अहंकार से सोलह पदार्थो का गण, उस गण में से पाँच तन्मात्राओ द्वारा पाँच महाभूत उत्पन्न होते है, इस प्रकार यह सृष्टि-रचना का क्रम है।"
-साख्यकारिका, २२ सूत्रकृताग १. १. ३ ७ वही, १. १. ३ ८ वही १. १. ३.६
३. ४. ५