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सतीय अध्याय : जैन-तत्त्वज्ञान
[ ६३ है। यह जान पचेन्द्रिय-तिर्यच तथा मनुष्यो के होता है । मन पर्ययजानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न, प्राणियो के मनोभावो को जानने वाला जान मन पर्ययज्ञान कहलाता है। इसके भी दो भेद है-ऋजुमति मन पर्यय तथा विपुलमति मन पर्यय । मनोभावो का सामान्य ज्ञान ऋजुमतिमन पर्यय तथा विशिष्टज्ञान विपुलमतिमन पर्यय कहलाता है । ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति-मन पर्ययज्ञान विशुद्धतर है तथा वह मनोभावो के अधिक सूक्ष्म विशेषो को अधिक स्पष्ट रूप से जानता है। केवलजानावरण कर्म के क्षय से वस्तु की भूत, भविष्यत् एव वर्तमान की समस्त पर्यायो को एक साथ जानने वाला जान केवलज्ञान कहलाता है।' यह ज्ञान 'अरिहत' तथा 'सिद्ध' अवस्था मे उत्पन्न होता है।
परोक्षजान दो प्रकार का है-आभिनिवोधिक तथा श्रुतज्ञान ।
मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से, इन्द्रिय तथा मन की सहायता द्वारा उत्पन्न ज्ञान आभिनिवोधिकनान कहलाता है। श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से, इन्द्रिय तथा मन की सहायता पूर्वक मतिज्ञान के बाद उत्पन्न होने वाला विचारात्मकनान श्रुतज्ञान कहलाता है। श्रुतजान के दो भेद है-अगवाह्य तथा अगप्रविष्ट । आचाराग आदि १२ अगशास्त्र अगप्रविष्ट श्रुतज्ञान है तथा इनसे अतिरिक्त उत्तराध्ययन, दशवकालिक आदि अनेक आगम ग्रन्थ अगवाह्य श्रुतज्ञान है ।'
नय-वस्तु को जानने के साधन दो है-प्रमाण तथा नय । प्रमाण वस्तु के पूर्ण रूप को ग्रहण करता है, और नय प्रमाण द्वारा गृहीत वस्तु के एक अश को जानता है। वस्तु अनन्त धर्मात्मक है, प्रमाण समग्रभाव से ग्रहण करता है, उसमे अग-विभाजन की ओर उसका लक्ष्य नही होता। जैसे "यह घडा है" इस जान मे प्रमाण घडे को अखड भाव से उसके रूप, रस, गध, स्पर्ण आदि अनन्त गुणधर्मो का विभाग न करके पूर्णरूप मे जानता है, जव कि कोई भी नय उसका विभाजन करके "रूपवान् घट.", "रसवान् घट" आदि रूप मे उसे अपने-अपने अभिप्राय के अनुसार जानता है, 13
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कल्पसूत्र, ५, १२७, पृ० २६६ स्थानाग (सूत्रवृत्ति-अभयदेव), ७१ १०४५-४७ (व) जैनदर्शन, पृ० ४७५