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तृतीय अध्याय : जैन-तत्त्वज्ञान
[ ६१ पर वैसे ही होती है, जैसे मल नीचे वैठ जाने पर जल मे स्वच्छता होती है । क्षायिक भाव वह है जो कर्म के क्षय से पैदा होता है । क्षय आत्मा की वह परम विशुद्धि है जो कर्म का सम्बन्ध विलकुल छूट जाने पर वैसे ही प्रकट होती है, जैसे सर्वथा मल निकाल देने पर जल मे पूर्ण स्वच्छता प्रकट हो जाती है । क्षायोपगमिक भाव कर्म के क्षय तथा उपगम दोनो से पैदा होता है । क्षयोपगम भी एक प्रकार की आत्मिक गुद्धि है, जो कर्म के एक अश का क्षय होने पर प्रकट होती है । यह विशुद्धि वैसी ही मिश्रित है जैसे धोने से मादक शक्ति के कुछ क्षीण हो जाने और कुछ रह जाने पर कोदो की शुद्धि । औदयिक भाव वह है जो कर्म के उदय से उत्पन्न होता है। उदय एक प्रकार की आत्मिक मलिनता है जो कर्म के विपाकानुभाव से वैसे ही होती है, जैसे मल के मिल जाने पर जल मे मालिन्य हो जाता है । पारिणामिकभाव द्रव्य का वह परिणाम है जो केवल द्रव्य के अस्तित्व से आप ही आप हुआ करता है, अर्थात् किसी भी द्रव्य का स्वाभाविक म्वरूप-परिणमन ही पारिणामिक भाव कहलाता है। ये ही पाँच भाव आत्मा के स्वरूप है, अर्थात् ससारी या मुक्त कोई भी आत्मा हो, उसके सभी पर्याय उक्त पाँचो भावो मे से किसी न किलो भाव दाले अवश्य होगे।'
लेश्या-क्रोध, मान, माया तथा लोभ-रूप कपाय के सद्भाव मे मन, वचन तथा काय की प्रवृत्ति को प्रेरित करने वाले आत्म-परिणाम लेश्या कहलाते है। लेश्या औदयिक भाव है, जो कि कर्म के उदय होने पर ही होती है। आत्मा के भाव असख्य हो सकते है, इस दृष्टि से लेग्याएँ भी असख्य हैं किन्तु व्यवहार के लिए उनको मुख्य रूप से छह भागो मे विभक्त किया गया है। वे छह भाग निम्न प्रकार है-१ कृष्ण लेण्या, २ नील लेण्या, ३. कापोत लेश्या ४ तेजो लेग्या, ५ पद्म लेश्या तथा ६ शुक्ल लेश्या ।
कपाय की तीव्रता के कारण अतिमलिन आत्म-परिणाम कृष्णलेण्या है । कपाय की कुछ अल्पता हो जाने से मलिन आत्म-परिणाम नील लेग्या है । कापोत लेश्या मे परिणामो की मलिनता नील लेण्या की अपेक्षा और भी अल्प होती है। इसी प्रकार तेजस्, पद्म और
१ स्थानाग, ५३७