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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दर्शनविषयः ७६ श्राहच--"समण सावरा य अवस्स कायव्ययं वइ जम्हा । तो होसिरस य तुम्हा आवरसयंनामं ||१|| छाया -- श्रमणेन श्रावकेण चावश्यं कर्त्तव्यं भवति यस्मात् । अंतेऽन्होनिशश्च तस्मादावश्यकं नाम ||१|| आवश्यकाद्व्यतिरिक्त ततो यदन्यदिति । "वरसगवतिरिक्त" इत्यादि यदि दिवसनिशाप्रथमपश्चिमपौरुपीद्वय एव पठ्यते तत् कालेन निवृत्तं कालिकम्--उत्तर ध्ययनादि यत पुनः कालवेलावर्जपठ्यते तदृध्वं कालिकादित्युत्तरकालिकं- दशकालिकादीति । उक्त ज्ञानं, चारित्रं प्रस्तावयति मूलः - दुविहे धम्मे पं० तं० - सुयधम्मे चैव चरित्तधम्मे चैव, सुयधम्मे दुविहे पं० त०- - सुत्तसुयधम्मे चैव श्रत्थसुयधम्मे चैव चरितध मे दुविहे पं तं० अगारचरितम्मे चैव - अणगारचरितम्मे चैत्र, दुविहे संजमे पं० तं ० - सरागसंजमे चैव वीतरागसंजमे चैव, सरागसंजमे दुविहे पं० तं० - सुहुमसंपराय सरागसंअमे चैव वादरसंपरायसरागसंजमे चेव. सुहुमसंपराय सरागसंजमे दुविहे पत्ते ० - पढमसमयसुहुमसं पराय सरागसजमे चैव पढमसमयसु०, अथवा चरमसमय सु० अचरम समय सु० अहवा सुमसंपराय सरागसंजमे दुविहे पं, तं०संकिले समाए चैव विसुज्झमाणए चेव, संजमे दुविहे पं० तं० - पढमसमयवादरसं० " - " वादररुं पराय सरागपढमसमय वादर For Private And Personal Use Only
SR No.010328
Book TitleJainagam Nyayasangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalaya Ludhiyana
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size7 MB
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