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संस्कृत शब्दानुशासन के प्रथम अध्याय में २४१ सूत्र, द्वितीय में ४६०, तृतीय में ५२१, चतुर्थ में ४८१, पंचम में ४६८, षष्ठ में ६६२ और सप्तम में ६७३ सूत्र हैं । कुल सूत्र संख्या ३५६६ है। प्रथम अध्याय के प्रथम पाद में संज्ञाओं का विवेचन किया है। इसमें स्वर, ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत, नामी, समान, संध्यक्षर, अनुस्वार, विसर्ग, व्यंजन, धुट, वर्ग, अघोष, घोषवत्व, अन्तःस्थ, शिट्, स्व, प्रथमादि, विभक्ति, पद, वाक्य, नाम, अव्यय और संख्यावत् इन २४ का प्रतिपादन किया है। शिष्टायस्य द्वितीयोः वा', १।३।५६ द्वारा खषीरम्, क्षीरम् तथा अफ्सरा, अप्सरा जैसे शब्दों की सिद्धि प्रदर्शित की है। हिन्दी का खीर शब्द हेमचन्द्र के ख्षीरम् के बहुत नजदीक है।
हेम ने इस प्रकरण में व्यंजन और विसर्ग इन दोनों संधियों का सम्मिलित रूप में विवेचन किया है। इसके कुछ सूत्र व्यंजन संधि के हैं तथा कुछ विसर्ग के और आगे बढ़ने पर विसर्ग संधि के सूत्रों के पश्चात् पुन: व्यंजन संधि के सूत्रों पर लौट आते हैं और अन्त में पुन: विसर्ग संधि की बातें बतलाने लगते हैं। सामान्य रूप से देखने पर यह एक गड़बड़झाला दिखलाई पड़ेगा, पर वास्तविकता यह है कि हेमचन्द्र ने व्यंजन संधि के समान ही विसर्ग संधि को भी व्यंजन संधि ही माना है, अत: दोनों का एकजातीय स्वरूप है। दूसरी बात यह है कि प्रायः देखा जाता है कि व्यंजन संधि के प्रसंग में आवश्यकतानुसार ही विसर्ग सन्धि के कार्य का समावेश हो जाया करता है । हेम विसर्ग को 'र' और 'स्' का प्रतिनिधि ही मानते हैं । प्रथम अध्याय के चतुर्थपाद में कतिपय स्वरान्त और व्यंजनांत शब्दों का भी नियमन किया गया है।
द्वितीय अध्याय के प्रथम पाद में अवशेष शब्द रूपों की चर्चा, द्वितीय पाद में कारक प्रकरण, तृतीय पाद में षत्व-णत्व विधान और चतुर्थ पाद में स्त्री प्रत्यय प्रकरण हैं । तृतीय अध्याय के प्रथम और द्वितीय पाद में समास प्रकरण तथा तृतीय और चतुर्थपाद में आख्यात प्रकरण आया है । चतुर्थ अध्याय के चारों पादों में भी आख्यात प्रकरण का ही नियमन किया गया है। पंचम अध्याय के चारों पादों में कृदन्त और षष्ठ तथा सप्तम अध्याय में तद्धित प्रकरण सन्निविष्ट हैं।
यह पहले ही कहा जा चुका है कि हेम ने अपने पूर्ववर्ती समस्त व्याकरणशास्त्र का अध्ययन कर अपने शब्दानुशासन को सर्वांगपूर्ण और अद्वितीय बनाने का श्लाघनीय प्रयास किया है। अब यह विचार कर लेना भी आवश्यक है कि हैम में अन्य व्याकरणों की अपेक्षा क्या वैशिष्ट्य है।
सर्वप्रथम पाणिनि और हेम की तुलना करने से ज्ञात होता है कि हेम ने पाणिनि से बहुत कुछ लिया है, पर इस अवदान को मौलिक और नवीन रूप में ही उन्होंने प्रस्तुत किया है। विचार करने से अवगत होता है कि संस्कृत के शब्दानुशासकों ने विभिन्न प्रकार से अपनी-अपनी संज्ञाओं के सांकेतिक रूप दिये हैं। यत्र
५४ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान