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भी जैमेन्द्र के होते हुए एक जुदा जैन-व्याकरण बनाने की आवश्यकता इसलिए महसूस हुई कि जैनेन्द्र अपूर्ण है और इसलिए बिना वार्त्तिकों और उपसंख्यानों के उससे काम नहीं चल सकता, परंतु जब शाकटायन जैसा सर्वाङ्गपूर्ण व्याकरण बन चुका, तब जैनेन्द्र व्याकरण के भक्तों को उसकी त्रुटियां खटकने लगीं और उनमें से आचार्य गुणनंदि ने उसे सर्वाङ्गपूर्ण बनाने का प्रयत्न किया। इस प्रयत्न का फल ही दूसरा सूत्रपाठ है, जिस पर सोमदेव की शब्दार्णव चंद्रिका रची गई है।" इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि शब्दार्णव चंद्रिका और जैनेन्द्र प्रक्रिया के सूत्र जैनेन्द्र व्याकरण के वास्तविक सूत्र नहीं हैं। अभयनंदि ने अपनी वृत्ति जिन सूत्रों पर लिखी है वे ही जैनेन्द्र के सूत्र हैं । इस शब्दानुशासन का जैनेन्द्र नाम होने का कारण रचयिता का जिनेन्द्रबुद्धि नाम ही है | श्रवणबेलगोल के ४० वें शिलालेख में बताया गया है ---
"यो देवनंदि प्रथमाविधानो बुद्धया महत्या स जिनेन्द्र बुद्धिः " श्री पूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यत्पूजितं पादयुगं यदीयम् ।। " आचार्य का प्रथम नाम देवनंदी था, बुद्धि की महता के कारण वह जिनेन्द्रबुद्धि कहलाये और देवों ने उनके चरणों की पूजा की, इस कारण उनका नाम पूज्यपाद हुआ ।
'पदेषु पदैकदेशान' नियम के अनुसार जिनेन्द्र बुद्धि का संक्षिप्त नाम जैनेन्द्र है और उनके द्वारा ग्रथित शब्दानुशासन जैनेन्द्र कहा जाता है । आचार्य देवनंदी का समय स्वर्गीय प्रेमीजी ने अनेक प्रमाणों के आधार पर विक्रम की छठी शताब्दी निश्चित किया है । " अधिकांश विद्वान इसी को ठीक मानते हैं । श्री युधिष्ठिर मीमांसक ने जैनेन्द्र महावृत्ति में 'जैनेन्द्र शब्दानुशासन' तथा उसके 'खिल्यपाठ शीर्षक' में अरुणन्महेन्द्रोमथुराम् उदाहरण से यह निष्कर्ष निकाला है कि आचार्य पूज्यपाद के काल की सीमा "महेन्द्र और उसकी मथुरा विजय" ऐतिहासिक घटना सुरक्षित है। यहां महेन्द्र से आशय गुप्तवंशीय कुमारगुप्त से है । इसका पूरा नाम महेन्द्रकुमार है । अत: आचार्य पूज्यपाद गुप्तवंशीय महाराजाधिराज कुमारगुप्त के समकालीन हैं और कुमारगुप्त का समय ई० ४१३- ४५५ है । अतः पूज्यपाद का समय --- विक्रम की पांचवीं शती का उत्तरार्द्ध या छठी शती का पूर्वार्द्ध है । ये दर्शन और व्याकरण के धुरंधर विद्वान् थे ।
इस व्याकरण में अनेक विशेषताएं हैं। पाणिनीय व्याकरण के सूत्रों का आधार रहने पर भी स्वर और वैदिक प्रयोग संबंधी सूत्रों का परित्याग कर दिया है । इसकी उल्लेखनीय विशेषताएं निम्न हैं
१. स्वाभाविकत्वादभिघानस्यैकशे पानारम्भ: ( 91912 ) सूत्र द्वारा बताया गया है कि शब्द स्वभाव से ही एक शेष की अपेक्षा न कर एकत्व, द्वित्व और बहुत में प्रवृत्त होते हैं । अत: एक शेष मानना निरर्थक है। अतएव इनका यह व्याकरण
जैनाचार्यों का व्याकरणशास्त्र को योगदान : ४५