________________
१. गुणे श्रीदत्तस्यास्त्रियाम् (१।४।३४) २. कुवृषिमृजां यशोभद्रस्य (२।१।६६) ३. राद्भूतवले : (३।४।८३) ४. रात्रेः कृति प्रभाचन्द्रस्य (४।३।१८०) ५. वेत्तेः मिद्धसेनस्य (५।११७) ६. चतुष्टयं समन्तभद्रस्य (५।४।१४०)
उपर्युक्त सूत्रों में श्रीदत्त,यशोभद्र,भूतवलि,प्रभाचंद्र, सिद्धसेन और समंतभद्र-- इन छ: वैयाकरणों के नाम आये हैं। इनके व्याकरण संबंधी ग्रंथ रहे होंगे, पर वे आज उपलब्ध नहीं हैं। अभयनंदी ने जैनेन्द्र की १।४।१६ की वृत्ति में 'उप सिद्धसेन वैयाकरण:' द्वारा यह बतलाया है कि सब वैयाकरण सिद्धसेन से हीन हैं।
उपर्युक्त विवेचन के आधार से भी हम यह निष्कर्ष निकालने में असमर्थ हैं कि जैन संप्रदाय में कौन-सा व्याकरण ग्रंथ सर्वप्रथम लिखा गया। उपलब्ध जैन व्याकरण साहित्य में देवनन्दी या पूज्यपाद का जैनेंद्र व्याकरण ही सबसे प्राचीन है।
जैनाचार्यों द्वारा लिखे गए छोटे-मोटे कई व्याकरण ग्रंथ उपलब्ध हैं। उनमें से केवल तीन ग्रंथ ही प्रधान हैं -जैनेन्द्र, शाकटायन और हैम। जैनेन्द्र व्याकरण ____ यह महत्त्वपूर्ण शब्दानुशासन है। इसमें ५ अध्याय, २० पाद और ३०५७ सूत्र हैं। इस व्याकरण के मूल सूत्र पाठ दो प्रकार के उपलब्ध हैं—एक तो वह जिस पर आचार्य अभयनंदि की महावृत्ति तथा श्रुतकीति कृत 'पंचवस्तु' नाम की क्रिया है और दूसरा वह जिस पर सोमदेव मूरिकृत 'शब्दार्णव चंद्रिका' और गुणनंदी कृत प्रक्रिया' हैं। पहले प्रकार के पाठ में लगभग ३००० और दूसरे में लगभग ३७०० सूत्र हैं । ७०० मूत्र अधिक होने के साथ शेष ३००० सूत्र भी दोनों में एक से नहीं हैं, किंतु दूसरे सूत्रपाठ में पहले सूत्रपाठ के सैकड़ों सूत्र परिवर्तित और परिवद्धित किये गए हैं। प्रथम सूत्रपाठ पाणिनि के ढंग का है। अत: उसमें वर्तमान भाषा साहित्य की दृष्टि से अनुशासन करने में अपूर्णता रह जाती है। इसी कमी की पूर्ति अभयनंदि ने अपनी 'महावृत्ति' में वात्तिक और उपसंख्यानों द्वारा की है। ___ दोनों प्रकार के सूत्रपाठों में कतिपय भिन्नताओं के रहते हुए भी समानता कम नहीं है। दोनों के अधिकांश सूत्र समान हैं। दोनों के प्रारंभ का मंगलाचरण भी एक है । दोनों में कर्ता का नाम देवनंदी या पूज्यपाद लिखा हुआ मिलता है। ___ आदरणीय स्वर्गीय प्रेमीजी ने अमली सूत्रपाट का निर्णय करते हुए लिखा है. "हमारे खयाल में आचार्य देवनंदि या पूज्यपाद का बनाया हुआ सूत्रपाठ वही है, जिस पर अभयनंदी ने अपनी महावृत्ति लिखी है। यह मूत्रपाठ उस समय तक तो समझा जाता रहा, जब तक शाकटायन व्याकरण नहीं बना । शायद शाकटायन को
४४ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान