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________________ जैनाचार्यों का व्याकरणशास्त्र को योगदान डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री भाषा के शुद्ध ज्ञान के लिए व्याकरण-ज्ञान परम आवश्यक है। धातु और प्रत्यय के संश्लेषण और विश्लेषण द्वारा भाषा के आंतरिक गठन का विचार व्याकरण शास्त्र में ही किया जाता है। लक्ष्य और लक्षणों का सुव्यवस्थित वर्णन करना ही इसका उद्देश्य है। यह शब्दों की व्युत्पत्ति और उनके निर्माण की प्राणवंत प्रक्रिया के रहस्य का उद्घाटन करता है। यह शब्दों के विभिन्न रूपों के भीतर जो एक मूलधातु या संज्ञा निहित रहती है, उसके स्वरूप का निश्चय और उसमें प्रत्यय जोड़कर विभिन्न शब्दों के निर्माण की महनीय प्रक्रिया उपस्थित करता है। साथ ही धातु और प्रत्ययों के अर्थों का निश्चय भी इसी के द्वारा होता है। संक्षेप में व्याकरण भाषा का अनुकरण कर उसके विस्तृत साम्राज्य में पहुंचने के लिए राजपथ का निर्माण करता है । प्राचीन परंपरा के अनुसार इंद्र, शाकटायन, आपिशलि, काश, कृत्स्न, पाणिनि, अमर, जैनेन्द्र और चन्द्र--ये आठ शाब्दिक बतलाए गए हैं। इन आठों में जैनेन्द्र-व्याकरण जैन है। व्याकरणशास्त्र के क्षेत्र में जैनाचार्यों ने अनेक नयी स्थापनाएं प्रस्तुत की हैं। आगम-ग्रन्थों के शब्दानुशासन सम्बन्धी नियमों के अतिरिक्त पूज्यपाद का जैनेन्द्र, पल्यकीति का शाकटायन और हेमचन्द्र का हैम व्याकरण इस शास्त्र के क्षेत्र में अद्वितीय हैं । निःसन्देह जैनाचार्यों ने व्याकरण क्षेत्र को अत्यधिक समृद्ध किया है। जैन व्याकरणशास्त्र का उद्भव और विकास भगवान् महावीर के मुख से निस्सृत द्वादशांगवाणी ही समस्त ज्ञान-विज्ञान का आकर है। कहा जाता है कि सत्यप्रवाद पूर्व में व्याकरणशास्त्र के सभी प्रमुख नियम आए हुए हैं। इसमें वचन संस्कार के कारण, शब्दोच्चारण के स्थान, प्रयत्न वचन-प्रयोग, वचन-भेद आदि का निरूपण है। वचन संस्कार का विवेचन करते हुए इसके दो कारण बताये गए हैं-स्थान और प्रयत्न । शब्दोच्चारण के हृदय, ४२ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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