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जाते हैं। समश्रेणी के श्रोता इन मिश्रित शब्दों को सुनते हैं। शब्द अनेक अन्य पुद्गलों को आंदोलित करते हुए उनमें भी शब्द-शक्ति पैदा कर देते हैं। वे वासित शब्द कहलाते हैं । विषम श्रेणी के श्रोता इन वासित शब्दों को सुन पाते हैं।
विज्ञान की दृष्टि से ध्वनि तरंगात्मक है। एक तरंग दूसरी तरंग में शब्द शक्ति पैदा करती है। आगे से आगे बढ़ती हुई अंतिम तरंग कान की झिल्ली को तरंगित करती है, तब शब्द सुनाई देता है। जन दृष्टि से वक्ता से विसर्जित शब्द के स्कन्ध भाषा वर्गणा के स्कन्ध में शब्द शक्ति पैदा कर देते हैं । वे वासित और मिश्रित शब्द जव इंद्रिय द्वार को खटखटाते हैं तब ध्वनि सुनाई देती है।
जैन दर्शन में गति के दो रूप हैं --ऋजु गति और वक्र गति । शब्द सदा ऋजु गति से चलते हैं और तीव्र प्रयत्न से मुक्त शब्द एक समय में लोकांत तक पहुंच सकते हैं। विज्ञान की दृष्टि से शब्द प्रति घंटा ११०० मील की गति करता है। गति संबंधी विज्ञान और आगमीय यह चिंतन विपरीत प्रतिभासित होता है। पर वास्तव में इसमें विरोध नहीं है। विज्ञान का यह माप शब्द श्रवण से संबंधित है। वक्ता और श्रोता के बीच शब्दों की मात्रा में जितना समय खर्च होता है उसी के आधार पर शब्द की गति का निर्धारण हुआ। जैन दर्शन में एक समय में लोकांत तक पहुंच जाने का क्रम शब्द की शक्ति रूप से है । श्रोता को कभी भी अंतर्महर्त से पहले सुनाई नहीं देता। अत: जैन दर्शन का अंतर्मुहूर्त और विज्ञान की दृष्टि में प्रतिघंटा ११०० मील की गतिक शब्द यात्रा बहुत समकक्ष है। विज्ञान में ११०० मील की गति का संबंध भी हवा के माध्यम से है। लोहा, कांच और जल में ध्वनि की गति बहुत तीव्र रहती है। जैन दृष्टि से प्रत्येक पुद्गल स्कन्ध की स्थिति जघन्य एक समय और अधिक से अधिक असंख्यात समय की होती है। इस मान्यता के आधार पर शब्द स्कन्ध भी सहस्रों वर्षों तक तद्रूप मे जीवित रह सकता है।
यह विवेचन उस समय का है जिस समय ध्वनियों के स्थायित्व प्रदान करने वाले टेपरिकार्ड आदि की कल्पना भी नहीं उभरी थी। तार का संबंध न होते हुए भी सुघोषा घंटा का शब्द अगंख्य योजन पर रही हुई घंटिकाओं में प्रतिध्वनित होता है। वायरलस की दिशा में जैन दर्शन का यह संकेत जैनाचार्यों की शब्द विज्ञान के विषय में महत्त्वपूर्ण देन है ।
जैनाचार्यों की शब्द-विज्ञान को देन : ४१