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उपकरण जब काम करते हैं तब ध्वनि सुनाई देती है।
विज्ञान मानता है कि प्रत्येक आदमी के कान के दो भाग होते हैं। एक कान का बाहरी भाग जो हमें दिखायी देता है, वह ध्वनि को ग्रहण करके अंदर पहुंचाता है। इसमें एक नली होती है जिसके बाहरी सिरे पर बाल होते हैं । ये कानों की रक्षा करते हैं। इसके आगे झिल्ली होती है। इस झिल्ली पर जाकर जब ध्वनि टकराती है तब मस्तिष्क में फैले हुए श्रवण शक्यात्मक ज्ञानतंतु इस ध्वनि को पकड़ लेते हैं । कान का पर्दा फट जाने पर मनुष्य बहरा हो जाता है । ज्ञानतंतु सुरक्षित रहने पर भी वह सुन नहीं पाता। इसी प्रकार ध्यान की विकेन्द्रित स्थिति में भी शब्दों का स्पर्श मात्र होता है । ज्ञानतंतुओं से उनका ग्रहण नहीं होता।
जैन दृष्टि के अनुसार सुनने में भी एक क्रम रहता है । इंद्रियां पहले स्थूल रूप को पकड़ती हैं। फिर क्रमश: उसके सूक्ष्म रूप का निर्णय करती हुई आगे बढ़ती हैं। इस क्रम को अवग्रहादि संकेतों में स्पष्ट किया है । इंद्रिय और पदार्थ का संयोग दर्शन है। इसे बौद्ध दर्शन में सामीप्य और नैयायिक दर्शन में सन्निकर्ष कहा जाता है । दर्शनान्तर में जो अव्यक्त ज्ञान होता है वह जैन दर्शन में व्यंजनावग्रह है। वस्तु का ग्रहण अर्थावग्रह है। यह व्यंजनावग्रह से कुछ विशद होता है । स्वरूप निश्चय में विकल्प उठाकर सम्यक् पक्ष के निर्णय पर पहुंचना ईहा है । दृढ़ निश्चय हो जाना अवाय है। लंबे समय तक ज्ञान का संस्कारों में बल पकड़ लेना धारणा है। शब्द ज्ञान भी हमें इसी क्रम से होता है। सर्वप्रथम शब्द और कान का संयोग होता है । व्यंजनावग्रह में शब्द का स्पर्श मात्र अस्पष्ट ज्ञान होता है । अर्थावग्रह में जाति, लिंग आदि के निर्देश बिना शब्द के सामान्य रूप का ग्रहण होता है । शब्द है या स्पर्श इस विकल्प के साथ ईहा शब्द होने का निर्णय देती है। अवाय सुदृढ़ निश्चय के केंद्र बिंदु पर पहुंच जाता है । यह ईहा के पर्यालोचन को ही पुष्ट नहीं करता पर अपना विशेष निर्णय प्रस्तुत करता है।
किसी भी शब्द को पकड़ते समय प्रत्येक बार यही क्रम रहता है । अवग्रह का अतिक्रमण कर कभी ईहा में और ईहा का अतिक्रमण कभी अवाय में नहीं हो सकता । सुनने के समय इस क्रम का बोध प्राय: हमें नहीं होता पर गाढ़ नींद में सुप्त मनुष्य को जगाते समय इस क्रम को समझ सकते हैं। व्यंजनावग्रह असंख्य समय का होता है । अर्थावग्रह एक समय का है। ईहा और अवाय अंतर्मुहूर्त लेते हैं। धारणा संख्येय असंख्येय काल तक जीवित रहती है। शब्द स्कन्ध का ग्रहण और विसर्जन
औदारिक, वैक्रियक और आहारक इन तीनों शरीरों के द्वारा शब्द-स्कन्ध का ग्रहण होता है और वचन योग के द्वारा उनका विसर्जन। शब्द-वर्गणाओं का ग्रहण सांतर और निरंतर दोनों प्रकार से होता है। सांतर की पद्धति में प्रत्येक समय के
जैनाचार्यों की शब्द-विज्ञान को देन : ३६