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है। शैल चट्टानों से पानी का स्रोत निकलता है। अशब्द से शब्द बनता है। शब्दोत्पत्ति की यह आगमिक प्रक्रिया बहुत वैज्ञानिक है। विज्ञान और ध्वनि
विज्ञान मानता है--ध्वनि मात्र प्रकंपन की प्रक्रिया है। शब्दोत्पादक सभी वस्तुएं कंपन करती हैं। बिना प्रकंपन के कभी ध्वनि पैदा नहीं होती। घंटी कंपन करती है तब ध्वनि उठती है। स्थिर घंटी में कभी आवाज नहीं निकलती। ट्यूनिंग फॉर्क फौलाद की छड़ का बना होता है। वह अंग्रेजी के अक्षर 'यू' के आकार में मुड़ा रहता है। इसमें किसी भी साधन से प्रकंपन उत्पन्न करने पर मधुर ध्वनि निकलती है । तब इसके किनारे स्पष्ट हिलते हुए दिखाई देते हैं। जब इनमें कंपन बंद हो जाता है तब ध्वनि भी बंद हो जाती है।
जैनागमों के आधार पर शब्दोत्पत्ति की प्रक्रिया दो प्रकार की है—प्रायोगिक और वैस्त्रसिक। प्रायोगिक और वैस्त्रसिक ये दोनों जैन के पारिभाषिक शब्द हैं। प्रयत्नजन्य शब्दों को प्रायोगिक कहा जाता है। सहज निष्पन्न शब्द वैस्त्र सिक कहलाते हैं। ___ शब्द ध्वन्यात्मक होते हैं। पर सभी शब्द भाषात्मक नहीं होते। वैस्त्रसिक शब्द अभाषात्मक होते हैं। मेघ की गर्जन सहज पैदा होती है। उसमें कोई भाषा नहीं है । प्रायोगिक शब्द अभाषात्मक होते हैं और भाषात्मक भी। हमारे कंठों से उत्पन्न ध्वनि दोनों प्रकार की है। भाषात्मक ध्वनि अर्थ विशेष को अभिव्यक्त करती है। अभाषात्मक ध्वनि अर्थ-शून्य होती है। विज्ञान में संगीतमय और कोलाहलमय ये दो भेद ही मुख्यतः ध्वनि तत्त्व के किए गये हैं। श्रवण विज्ञान
शब्द श्रोत्रेन्द्रिय का विषय है । सब इंद्रियां अपने-अपने विषय को ग्रहण करती हैं । श्रोत्रेन्द्रिय दो भागों में विभक्त है-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय ।
द्रव्येन्द्रिय के दो भेद हैं ---निर्वत्ति द्रव्येन्द्रिय और उपकरण द्रव्येन्द्रिय । श्रोत्रेन्द्रियका बाह्याकार निर्वृत्ति है। निर्वृत्ति की वह शक्ति जो शब्द सुनने में उपकरण बनती है, वह उपकरणेन्द्रिय हैं। भावेन्द्रिय भी दो भागों में विभक्त है। लब्धि भावेन्द्रिय और उपयोग भावेन्द्रिय । श्रोत्रेन्द्रिय का जो स्वात्मजन्य क्षयोपशम है वह लब्धि है। इसके विना श्रोत्रन्द्रिय उपलब्ध नहीं होती। सुनने में ध्यान केंद्रित करना उपयोग है। इनमें लब्धि-इंद्रिय का स्थान प्रथम है, फिर क्रमश: निर्वत्ति उपकरण और उपयोग बनता है। अनेक शब्द निवृत्ति को छूकर चले जाते हैं। उपकरणेन्द्रिय के सहयोगाभाव में उन्हें सुन नहीं पाते । बहुत बार अन्य सब माध्यम काम करते हैं पर उपयोग के अभाव में शब्द सुनाई नहीं देते। श्रवण के चारों
३८ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान