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समुच्चायक-व्याख्यान
इस संगोष्ठी की निबन्ध-वाचन के अतिरिक्त महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी— विद्वानों के समुच्चायक व्याख्यान । जैन विद्या के मूर्धन्य विद्वान डा० ए० एन० उपाध्ये ने 'जैन विद्या का भारतीय परम्परा को अवदान' विषय पर एक विस्तृत व्याख्यान दिया । आपने भारतीय भाषा, साहित्य, समाज एवं कलाओं के क्षेत्र में जैन धर्म ने जो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है उसे बहुत अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया । तथा वर्तमान में जैन धर्म का जन-साधारण के लिए क्या दायित्व है, इस पर भ 1 अपने विचार प्रस्तुत किये। दूसरा व्याख्यान प्रोफेसर कृष्णदत्त वाजपेयी का था । आपने जैन कला एवं पुरातत्त्व की प्रमुख प्रवृत्तियों एवं विशेषताओं का सचित्र विश्लेषण प्रस्तुत किया। आपके निष्कर्ष थे कि भारतीय कला एवं पुरातत्त्व का अध्ययन जैन कला के सर्वांगीण अध्ययन के अभाव में अधूरा ही रहेगा, क्योंकि जैन कला ने भारत के विभिन्न प्रान्तों को मनोरम कलाकृतियों, चित्रों से सजाया ही नहीं है, अपितु भारतीय ललितकलाओं के उत्कर्ष में अपनी विशिष्ट भावभंगिमा भी प्रदान की है। प्रोफेसर वाजपेयी ने विद्वानों को स्थानीय आहाड़ के भग्नावशेषों तथा उसके परिसर में प्राप्त जैन मंदिरों की कला का भी दिग्दर्शन कराया । समापन एवं निष्कर्ष
संगोष्ठी के समारोह की अध्यक्षता डा० ए० एन० उपाध्ये ने की। संगोष्ठी में पठित निबन्धों पर विचार-विमर्श का विवरण प्रस्तुत किया डा० श्रीमती रत्नाश्रेयान् ने । संगोष्ठी में सम्मिलित सभी विद्वानों की यह सम्मति थी कि इस संगोष्ठी से पहली बार विश्वविद्यालय स्तर पर जैन विद्या भारतीय विद्या के अध्ययन-अनुसंधान के क्षेत्र में अपने उपयुक्त स्थान को पा सकी है। अब वह सीधे दरवाज़े से प्रविष्ट हुई है । इस पंचदिवसीय संगोष्ठी में देश के विभिन्न कोनों से सम्मिलित ४५ विद्वानों द्वारा सर्व सम्मति से यह सिफारिश प्रस्तुत की गयी कि उदयपुर विश्वविद्यालय में जैन विद्या एवं अपभ्रंश अध्ययन का एक केन्द्र अथवा स्वतंत्र विभाग यथाशीघ्र प्रारंभ किया जाए, जिसमें जैन धर्म-दर्शन का तुलनात्मक मूल्यांकन, प्राकृत अपभ्रंश एवं क्षेत्रीय भाषाओं के ग्रंथों का सम्पादन व प्रकाशन तथा राजस्थान के सामाजिक और सांस्कृतिक विकास में जैन विद्या के योगदान पर अनुसन्धान कार्य हो सके । अन्त में संगोष्ठी के निदेशक डा० रामचन्द्र द्विवेदी ने जैन विद्या को भारतीय विद्या का अभिन्न अंग बतलाकर मनीषी विद्वानों को इस क्षेत्र में प्रवृत्त होने के लिए आह्वान करते हुए यह शुभ लक्षण माना कि धर्म, दर्शन एवं संस्कृति के क्षेत्र के महारथी पहली बार भारत की समुच्चय संस्कृति की निर्मात्री जैन संस्कृति की चर्चा विश्वविद्यालय में कर रहे हैं ।
संगोष्ठी का सिंहावलोकन : १७