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________________ मेवाड़ के प्रमुख जैन केन्द्र आयड़—आयड़ में भारत भर के जैन व्यापारियों ने इसे व्यापार का केन्द्र बनाकर कई मंदिरों के निर्माण से जैन धर्म को लोक-धर्म बनाया । प्रद्युम्न सूरि ने आयड़ के राजा अल्लट से श्वेताम्बर सम्प्रदाय को राज्याश्रय प्रदान करवाया । अल्लट ने सारे राज्य में विशिष्ट दिनों में जीव-हिंसा तथा रात्रि भोजन निषेध कर दिया । उसकी रानी हूण राजकुमारी हरियादेवी ने आयड़ में पार्श्वनाथ का विशाल मंदिर बनवाया । अल्लट के बाद राजा वैरिसिंह के समय आयड़ में जैन धर्म के बड़ेबड़े समारोह हुए और ५०० प्रमुख जैनाचार्यों की एक महत्त्वपूर्ण संगीति आयोजित हुई । वैरिसिंह के काल में असंख्य लोगों को जैन धर्म में दीक्षित कर अहिंसा जीवन की शिक्षा दी तथा सहस्रों हूण, शक आदि विदेशियों को जैन धर्म में दीक्षित कर उनका भारतीयकरण किया गया। आयड़ में महारावल जैनसिंह के अमात्य जगतसिंह ने ऐसी घोर तपस्या की कि जैत्रसिंह ने उन्हें 'तपा' की उपाधि दी और यहीं से 'तपागच्छ' निकला है, जिसके आज भी श्वेताम्बर मूर्ति-पूजकों के सर्वाधिक अनुयायी हैं । चित्तौड़ - चित्तौड़ आरम्भ से ही जैन धर्म का अच्छा केंद्र रहा तथा जैन मुनियों ने गुजरात व मालवा से यहां आकर निवास किया। यह जैन धर्म के दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों का केन्द्र था । चित्तौड़गढ़ भारतवर्ष का एकमात्र क्षात्रधर्म का तीर्थ माना जाता है । वह मौर्य जैन राजा चित्रांगद का बसाया हुआ है । यह अनेक जैनाचार्यों की कर्मभूमि, धर्मभूमि और उनकी विकास भी है । भारत के महान तत्त्व विचारक, समन्वय के आदि पुरस्कृता, अद्वितीय साहित्यकार एवं महान् शास्त्रकार हरिभद्र सूरि और अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति की एकमात्र विदुषी एवं तपस्विनी साध्वी याकिनी महतरा की यह जन्मभूमि है । जैन जगत् के विद्वान् मार्तण्ड सिद्धसेन चित्तौड़ की साधना के बाद ही दिवाकर के रूप में प्रकट हुए । जैन धर्म में फैले हुए अनाचार को मिटा उसे शुद्ध रूप में प्रकट करने के लिए जिनवल्लभ सूरि ने गुजरात से आ यहीं से आंदोलन आरम्भ किया जो सफल हो देश में सर्वत्र फैल गया है । हरिभद्र सूरि और जिनदत्त मूरि ने लाखों व्यक्तियों को प्रतिबोधिक कर उन्हें अहिंसक बनाया, उसका आरम्भ भी यहीं से हुआ । दिगम्बर आचार्यों में यहां सर्वप्रथम एलाचार्य नामक प्रसिद्ध साधु का नाम आता है । वीर सेनाचार्य नामक साधु इनके पास विद्या प्राप्त करने आये थे, जिन्होंने बड़ौदा - वागड़ जाकर धवल टीका पूर्ण की। वीरसेन के शिष्य जिनसेन और गुणभद्र हुए जो दिगम्बर सम्प्रदाय में प्रख्यात हैं । राजा अल्लट के शासनकाल में दिगम्बरों और श्वेताम्बरों में शास्त्रार्थ का उल्लेख तथा श्वेताम्बर १९४ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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