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हैं। आज भी ऋषभदेव केसरियाजी जैसा तीर्थ भारतवर्ष में अन्यत्र कहीं नहीं पाया जाएगा, जहां ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, सतशूद्र, आदिवासी आदि सब बड़े प्रेम और भक्ति से दर्शनार्थ आते हैं और पूजा कर अपने को धन्य मानते हैं । और राणकपुर जैसा गोठवण तथा शिल्प योजना का भव्य विशाल व कलापूर्ण मंदिर अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा ।
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तीर्थंकरों द्वारा स्पर्शित भूमि
कृष्ण के चरणों की पूजा - शिला भारत में सर्वप्रथम मज्झमिका में मिलने से अनुमान है कि कृष्ण मथुरा से द्वारिका यहीं होकर गये और उन्हीं के अनुकरण से उनके चचेरे भाई नेमिनाथ भी मथुरा से गिरनार गये। मथुरा से गुजरात के बीच का मार्ग मेवाड़ से ही जाता है अतः नेमिनाथ के भी मेवाड़ आने का अनुमान है। पार्श्वनाथ नागवंशी थे । मेवाड़ में एकलिंगजी के पास नाग राजधानी नागदा में जैनों का तीर्थ केन्द्र था । यहीं भारत का प्रसिद्ध पार्श्वनाथ का मंदिर है जिसे खण्डहर अवस्था में पार्श्वनाथ के पदार्पण के बाद ही इसे महत्त्व दिया गया होगा । अतः कहा जा सकता है कि पार्श्वनाथ के यहां आने से ही नागदा का तीर्थं बना । इसके साथ ही जैन इतिहास में पार्श्वनाथ के सिंध के अहिछत्रपुर जाने की भी परम्परा चली आ रही है, जिसका मार्ग मेवाड़ से ही है ।
जैन इतिहास की एक परम्परा के अनुसार महावीर भ्रमण करते हुए मंदसौर आये थे । उन्होंने वहां के राजा दर्शाणभद्र को दीक्षा दी थी । उसके बाद 'नाणा दीयाणा नांदिया, जीवित स्वामी वांदिया' के अनुसार महावीर इन स्थानों पर होते हुए मेवाड़ के दक्षिण में ब्राह्मणवाड़ तक आये थे । इन ग्रामों में जाने के लिए मेवाड़ के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं है तथा अभी डेढ़ सौ वर्ष पूर्व तक मंदसौर चित्तौड़ के क्षेत्र में था का ही हिस्सा था । और नाणा आदि स्थान तो मेवाड़ के साथ लम्बे काल तक थे । प्रसिद्ध इतिहासज्ञ विन्सेंट स्मिथ ने भी महावीर के मेवाड़ में आने में तथ्य की संभावना बताते शोध पर बल दिया है । अत: प्राचीन समय से ही मेवाड़ का जैन धर्म से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है ।
जैन पुरातत्व एवं कला - - महावीर के समय मगध जैन धर्म का केन्द्र था, जो बाद में राजक्रांतिओं से मथुरा में केन्द्रित और राजस्थान, मालवा व गुजरात में विस्तृत हुआ । अशोक ने सारे देश में हिंसा - निषेधाज्ञा के शिलालेख लगवाये थे । उससे भी पहले का जैन धर्म का एक शिलालेख मेवाड़ में मज्झमिका नगरी में मिला है, जो इस प्रकार है
"वीर (T) य भगव (ते) चतुरासिति व ( स ) काये जलाभालिनिये रेंनिविठ माझिमिके । "
इस शिलालेख को पुरातत्ववेत्ताओं ने महावीर के निर्वाण के केवल ८४ वर्ष १६० : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान