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________________ वव्वरकूल या बाबर तथा तारा तंबोल नगरों को देखा, जिनमें से कतिपय नगरों का उसने सविस्तर वर्णन भी किया है। इन नगरों के मध्य की पारम्परिक दूरी उसने क्रमश: ३००, १५०, ३००, ८००, ६००, १२००, ५०० और ७०० कोस दी है । विभिन्न हस्तलिखित ग्रंथों में इस विवरण के अनेक संस्करण मिलते हैं, जिनमें यत्र-तत्र थोड़ा-बहुत अंतर भी है। एक संस्करण में काबुल और परसमान नगरों का भी यात्रा मार्ग में उल्लेख है । स्व० मुनि कान्तिसागर', श्री सागरमल कोठारी, स्व० श्री वासुदेवशरण अग्रवाल' एवं श्री अगरचंद नाहटा ने भी इस विवरण के कई एक संस्करण प्रकाशित करा दिये हैं । श्री अगरचन्द नाहटा ने तपागच्छीय शील विजय द्वारा गं० १७४६ वि० ( सन् १६=९ ) में विरचित तीर्थमाला ग्रंथ का एक 'उत्तर दिशि के जैन तीर्थ' विषयक खंड भी आज से चौदह वर्ष पूर्व नागरी प्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित कराया था । ' प्रतीत होता है तीर्थमाला का यह खंड बुलाकीदास के ही विवरण के आधार पर तैयार किया गया था, जिसे शीलविजय ने अपने गुरु से सुनना कहा है। शीलविजय ने तीर्थों का क्रम प्रायः वही रखा है जो बुलाकीदास का है --- नगरों के मध्य की दूरी भी दी है, पर यत्र-तत्र उसने मूल मार्ग से थोड़ा इधरउधर हटकर स्थित रोम नगर, सासता नगर जैसे नगर नामों को भी नामावली में स्थान दे दिया है । वह इनके अतिरिक्त भी जहां एशिया के अन्य अनेक नगरों में जैन प्रभाव होने की सूचना देता है, वहीं इस्तंबूल से उत्तर में स्थित सहस्रमुखी गंगानदी के पूर्व में बौद्ध धर्म की व्याप्ति और पश्चिम में स्थित तारातंबोल से लगाकर लाट देश तक के विस्तृत क्षेत्र में जैन धर्मी जनता के निवास की सूचना देता है । वहतारातंबोल से १०० गाउ ( गव्यूति = दो कोस या चार मील ) दूर किसी स्वर्ण कांति नगरी में भी जैन धर्म का प्रभाव होना बताता है । Samratदास के विभिन्न यात्रा - विवरणों में कतिपय प्रसिद्ध नगरों में राज कर रहे राजवंशों के नाम भी दिये हैं, यथा - इस्पहान में तिलंग, इस्तंबूल में रोमसोम, खुरासान में रावीर, तारातंबोल में जं चंद्रसूर, चन्द्रसूर या सूरचंद्र । जबकि शीलविजय ने खुरासान में हुनसान, इस्तंबोल में तिलंग, तारातंबोल में सूरचन्द्र और स्वर्णकान्ति नगरी में कल्याण सेन को राज करते बताया है । दूसरा विवरण मिलता है अहमदाबाद के व्यापारी पद्मसिंह की सपरिवार दूर देशान्तर की यात्रा का । यह विवरण स्वयं पद्मसिंह ने यात्रा से लौटकर हैदराबाद से अहमदाबाद में रह रहे रतनचंद भाई को लिखे अपने पत्र में किया १. जैन सत्य प्रकाश, वर्ष ५, अंक २ । २. जैन सत्य प्रकाश, वर्ष ६, अंक, ६ । ३. साप्ताहिक हिन्दुस्तान - २३ जून, १६५६ । ४. नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष ६४, अंक २ (सं० २०१६ ) सोवियत गणराज्य और पश्चिम एशियाई देशों में जैन तीर्थ : १६६
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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