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________________ ऊंचाई को स्पर्श कर सकते हैं । कर्मक्षेत्र में कूदने की शक्ति तो मानव के पास ही है । इसीलिए जैन धर्म में भाग्यवाद को स्थान नहीं है। वहां कर्म की ही प्रधानता है । वैदिक धर्म में जो स्थान स्तुति, प्रार्थना और उपासना को दिया गया है वही स्थान श्रमण-धर्म में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र को मिला है । समग्र रूप से यह कहा जा सकता है कि श्रमण-धर्म का लोक-संग्राहक रूप स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म अधिक है, बाह्य की अपेक्षा आंतरिक अधिक है । उसमें देवता बनने के लिए जितनी तड़प नहीं, उतनी तड़प संपूर्ण संसार को कषाय आदि पाप कर्मों से मुक्त कराने की है। इस मुक्ति के लिए वैयक्तिक अभिक्रम की उपेक्षा नहीं की जा सकती जो जैन-साधना के लोक-संग्राहक रूप की नींव है | जैन धर्म जीवन- संपूर्णता का हिमायती सामान्यतः यह कहा जाता है कि जैन धर्म ने संसार को दुखमूलक बताकर निराशा की भावना फैलाई है, जीवन में संयम और विराग की अधिकता पर बल देकर उसकी अनुराग-भावना और कला-प्रेम को कुंठित किया है । पर यह कथन साधार नहीं है, भ्रांतिमूलक है। यह ठीक है कि जैन धर्म ने संसार को • दुखमूलक माना, पर किसलिए ? अखंड आनंद की प्राप्ति के लिए, शाश्वत सुख की उपलब्धि के लिए। यदि जैन धर्म संसार को दुखपूर्ण मानकर ही रुक जाता, सुख-प्राप्ति की खोज नहीं करता, उसके लिए साधना मार्ग की व्वयस्था नहीं देता तो हम उसे निराशावादी कह सकते थे, पर उसमें तो मानव को महात्मा बनाने की, आत्मा को परमात्मा बनाने की आस्था का बीज छिपा हुआ है । दैववाद के नाम पर अपने को असह्य और निर्बल समझी जाने वाली जनता को किसने आत्म- जागृति का संदेश दिया ? किसने उसके हृदय में छिपे हुए पुरुषार्थ को जगाया ? किसने उसे अपने भाग्य का विधाता बनाया ? जैन धर्म की यह विचारधारा युगों बाद आज भी बुद्धिजीवियों की धरोहर बन रही है, संस्कृति को वैज्ञानिक दृष्टि प्रदान कर रही है । यह कहना भी कि जैन धर्म निरा निवृत्तिमूलक है, ठीक नहीं है। जीवन के विधान पक्ष को भी उसने महत्त्व दिया है। इस धर्म के उपदेशक तीर्थंकर लौकिकअलौकिक वैभव के प्रतीक हैं। दैहिक दृष्टि से वे अनंत बल, अनंत सौंदर्य और अनंत पराक्रम के धनी होते हैं । इंद्रादि मिलकर पंच कल्याणक महोत्सवों की आयोजना करते हैं । उपदेश देने का उनका स्थान ( समवसरण ) कलाकृतियों से अलंकृत होता है । जैन धर्म ने जो निवृत्तिमूलक बातें कही हैं वे केवल उच्छृंखलता और असंयम को रोकने के लिए ही । जैन धर्म की कलात्मक देन अपने आप में महत्त्वपूर्ण और अलग से अध्ययन की अपेक्षा रखती हैं । वास्तुकला के क्षेत्र में विशालकाय कलात्मक मंदिर, मेरु १६४ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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