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________________ इनकी दैनिक चर्या भी बड़ी पवित्र होती है। दिन-रात ये स्वाध्याय-मननचिंतन-लेखन और प्रवचन आदि में लगे रहते हैं । सामान्यतः ये प्रतिदिन संसार के प्राणियों को धर्म-बोध देकर कल्याण के मार्ग पर अग्रसर करते हैं। इनका समूचा जीवन लोक-कल्याण में ही लगा रहता है। इस लोक-सेवा के लिए ये किसी से कुछ नहीं लेते। श्रमण धर्म की यह आचारनिष्ट दैनन्दिन चर्या इस बात का प्रबल प्रमाण है कि ये श्रमण सच्चे अर्थों में लोक-रक्षक और लोक-सेवी हैं। यदि आपदकाल में अपनी मर्यादाओं से तनिक भी इधर-उधर होना पड़ता है तो उसके लिए भी ये दंड लेते हैं, व्रत-प्रत्याख्यान करते हैं। इतना ही नहीं, जब कभी अपनी साधना में कोई बाधा आती है तो उसकी निवृत्ति के लिए परीषह और उपसर्ग आदि की सेवना करते हैं। मैं नहीं कह सकता, इससे अधिक आचरण की पवित्रता, जीवन की निर्मलता और लक्ष्य की सार्वजनीनता और किस लोक-संग्राहक की होगी ? श्रमण धर्म के लोक-संग्राहक रूप पर प्रश्नवाचक चिह्न इसलिए लगा हुआ है कि उसमें साधना का फल मुक्ति माना है--ऐसी मुक्ति जो वैयक्तिक उत्कर्ष की चरम सीमा है। बौद्ध धर्म का निर्वाण भी वैयक्तिक है। बाद में चलकर बौद्ध धर्म की एक शाखा महायान ने सामूहिक निर्वाण की चर्चा की । मेरी मान्यता है कि जैन दर्शन की वैयक्तिक मुक्ति की कल्पना सामाजिकता की विरोधिनी नहीं है; क्योंकि श्रमण-धर्म ने मुक्ति पर किसी का एकाधिकार नहीं माना है । जो अपने आत्म-गुणों का चरम विकास कर सकता है, वह इस परम पद को भी प्राप्त कर सकता है और आत्म-गुणों के विकास के लिए समान अवसर दिलाने के लिए जैन धर्म हमेशा संघर्षशील रहा है। भगवान महावीर ने ईश्वर के रूप को एकाधिकार के क्षेत्र से बाहर निकालकर समस्त प्राणियों की आत्मा में उतारा । आवश्यकता इस बात की है कि प्राणी साधना-पथ पर बढ़ सके। साधना के पथ पर जो बंधन और बाधा थी, उसे महावीर ने तोड़ गिराया। जिस परम पद की प्राप्ति के लिए वे साधना कर रहे थे, जिस स्थान को उन्होंने अमर सुख का घर और अनंत आनंद का आवास माना, उसके द्वार सबके लिए खोल दिये। द्वार ही नहीं खोले, वहां तक पहुंचने का रास्ता भी बता दिया। जैन दर्शन में मानव शरीर और देव शरीर के संबंध में जो चिंतन चला है, उससे भी लोक-संग्राहक वृत्ति का पता चलता है। परमशक्ति और परमपद की प्राप्ति के लिए साधना और पुरुषार्थ की जरूरत पड़ती है। यह पुरुषार्थ, कर्तव्य की पुकार और बलिदान की भावना मानव को ही प्राप्त है, देव को नहीं । देवशरीर में वैभव-विलास को भोगने की शक्ति तो है पर नये पुण्यों के संचय की ताकत नहीं । देवता जीवन-साधना के पथ पर बढ़ नहीं सकते, केवल उसकी जैन धर्म का सांस्कृतिक मूल्यांकन : १६३
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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