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________________ सदी में हुए । इसी ग्रंथ के आधार पर अमितगति ने ई० सन् १०१६ में संस्कृत श्लोकबद्ध पंचसंग्रह की रचना की । गणित के अन्य ग्रंथ श्वेताम्बर परंपरा में भी कर्म ग्रंथों का बड़ा महत्त्व है । नन्दीसूत्र में दृष्टिवाद के पांच भाग बतलाये हैं- परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत ( चौदह पूर्व ), अनुयोग और चूलिका । परिकर्म के द्वारा सूत्रों को यथावत् समझने की योग्यता प्राप्त की जाती है । 'पूर्वधर' नाम से विख्यात विक्रम की लगभग पांचवीं सदी के आचार्य शिवकर्म सूरि ने कम्म पर्याड ( कर्म प्रकृति) और सयग ( शतक) की रचना की है। कर्म प्रकृति में ४१५ गाथाओं में बंधन, संक्रमण, अपवर्तन, उदीरणा, उपशयना, उदय और सत्ता का विवेचन है । ये कर्म संबंधी आठ करण हैं । इस पर चूर्णी भी लिखी गयी है । मलयगिरि और यशोविजय (अठारहवीं सदी) ने इस पर टीकाएं लिखी हैं । सयग पर भी मलयगिरि ने टीका लिखी है । पार्श्वऋषि के शिष्य चन्द्रर्षि महत्तर ने पंचसंग्रह की रचना की है जिसमें ε६३ गाथाएं हैं । ये सयग, सत्तरि, कषाय पाहुड, छकम्म और कम्मपर्याड नाम के पांच द्वारों में विभक्त हैं । गुणस्थान, मार्गणा, समुद्धात, कर्मप्रकृति तथा बंधन, संक्रमण आदि का यहां विस्तृत विवरण उपलब्ध है । प्राचीन कर्मग्रंथों में कम्मविवाग, कम्मत्थव, बंध सामित्त, सडसीइ, सयग और सित्तरि हैं । कम्मविवाव के गर्गषि हैं। जिनवल्लभगणि ने सडसीइ नाम के चौथे कर्मग्रंथ को रचा। सयग के रचयिता आचार्य शिवशमं हैं। इन ग्रंथों पर भाष्य, चूर्णियां और अनेक वृत्तियां लिखी गयी हैं । ई० तेरहवीं शताब्दी में देवेन्द्रसूरि ने कर्मविपाक, कर्मस्त्व, बन्ध, स्वामित्व, षडशीति और शतक नामक ग्रंथों की रचना की है । ये प्राचीन कर्म ग्रंथों पर आधारित हैं इसलिए इन्हें नव्य कर्म ग्रंथ कहा जाता है। एक ओर नव्य कर्म ग्रंथ प्रकृति बंध विषयक ७२ गाथाओं में लिखा गया है, जिसके कर्त्ता के विषय में अनिश्चय है । जिनभद्रगणी ( ई० छठी शती) कृत विशेषणवती में ४०० गाथाओं द्वारा ज्ञान, दर्शन, जीव, अजीव आदि नाना प्रकार से द्रव्य प्ररूपण किया गया है । जीव समास नामक एक प्राचीन रचना २८६ गाथाओं में पूर्ण हुई है, और उसमें सत् संख्या आदि सात प्ररूपणाओं द्वारा जीवादि द्रव्यों द्वारा स्वरूप समझाया गया है । इस ग्रंथ पर एक वृहद् वृत्ति मिलती है जो मलधारी हेमचन्द्र द्वारा ११०७ ई० में लिखी गई और ७००० श्लोक प्रमाण है । ज्योतिष और न्याय-ग्रंथों में गणित जहां गणित का प्रयोग हुआ है ऐसे विषय ज्योतिष और न्याय भी हैं । गणितजैनाचार्यों की गणित को योगदान : १४७
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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