________________
स्पष्ट है । कषाय पाहुड की रचना २३३ मूल गाथाओं के रूप में संभवत: आचार्य धरसेन के समकालीन आचार्य गुणधर द्वारा हुई जिस पर यंतिकृषभाचार्य ने आर्यभक्षु एवं नागहस्ति से शिक्षा ग्रहण कर छह हजार श्लोक प्रमाण वृत्ति सूत्र लिखे ; जिन्हें उच्चारणाचार्य ने पुनः पल्लवित किये। इन पर वीरसेनाचार्य ने बीस हज़ार श्लोक प्रमाण अपूर्ण टीका लिखी और स्वर्गवासी हुई। उनके शिष्य आचार्य जिनसेन ने चालीस हज़ार श्लोक प्रमाण टीका और लिखकर उसे पूर्ण किया । उन्होंने वीरसेन के सम्बन्ध में लिखा है
यस्य नैसर्गिकी प्रज्ञा दृष्ट्वा सर्वार्थगामिनीम् । जाता: सर्वज्ञ-सद्भावे निरारेका मनस्वितः ॥
वीरसेनाचार्य की दृष्टि वैज्ञानिक थी और अन्तःप्रेरणा गणितीय स्रोतों से परिप्लावित थी। डॉ० अवधेशनारायण सिंह ने केवल द्रव्यप्रमाणानुगम भाग से, तथा कुछ और संभवत: आगे के भाग से शांकव गणित, बीजगणित तथा राशि गणित सम्बन्धी प्रारम्भिक गणितीय खोजों को अपने लेखों में प्रकट किया है और गंभीरतापूर्वक स्पष्ट किया है कि ये ग्रंथ भारत के गणित के इतिहास के ऊधतम युग सम्बन्धी समस्याओं को सुलझाने में सहायक सिद्ध होंगे। उन्होंने ही प्रथम बार अर्द्धच्छेद को लागएरिथ्म टू दा बेस टू के रूप में पहचाना। इन टीकाओं में बड़ी संख्याओं का उपयोग, वर्गन संवर्गन क्रिया, शलाका गणन, विरलन देय गुणन, अनन्त - राशियों का कलन, राशियों के विश्लेषण हेतु अनेक विधियां आदि का समावेश है । इन्हें तथा तिलोय पण्णत्ति के कई स्थलों को समझने हेतु पंडित टोडरमल की टीकाओं से होकर गुजरना आवश्यक होगा, अन्यथा कई स्थानों पर विद्यार्थी उलझ जाएगा । तिलोय पण्णत्ति में भी दृष्टिवाद से अवतरित जम्बूद्वीप की परिधि का माप, उपमा प्रमाण, विविध क्षेत्रों का घनफल निकालने की विधियां, बाण, जीवा, धनुष पृष्ठ आदि में सम्बन्ध, धनुषक्षेत्र का क्षेत्रफल, सजातीय तथा समक्षेत्र घनफल वाली आकृतियों का रूपांतर एवं उनकी भुजाओं के बीच संबंध आदि दिए गये हैं । इनकी कुछ सामग्री वीरसेन की धवला टीका में भी दृष्टिगत होती
है ।
वीरसेन के प्रायः समकालीन महावीराचार्य के गणितसार संग्रह का उद्धार १९१२ में मद्रास के प्रोफेसर रंगाचार्य द्वारा हुआ जिसने यह सिद्ध कर दिया कि भारत के सुदूर दक्षिण में भी उत्तर के विद्या- केंद्रों की भांति गणित विद्या के केंद्र थे । महावीराचार्य ने अपने समय के नृपतुंग अमोघवर्ष के आश्रय में रहकर, पूर्ववर्ती गणितज्ञों के कार्य में कुछ सुधार किया, नवीन प्रश्न दिये, दीर्घवृत का क्षेत्रफल निकाला तथा मूलबद्ध और द्विघातीय समीकरणों में सुन्दर ढंग से पहुंच की। उन्होंने शून्य द्वारा विभाजन (संभवत: राशि सिद्धांत पर आधारित) प्रस्तुत किया । संकेतनात्मक स्थान बतलाये और भाग देने की एक वर्तमान विधि का कथन किया ।
जैनाचार्यों की गणित को योगदान : १४५