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है। इस प्रकार जब आवरण सर्वथा हट जाता है तो निरावरण केवलज्ञान प्रकट होता है। इसे क्षायिक ज्ञान भी कहते हैं। केवलज्ञानी त्रिकालवर्ती सभी रूपीअरूपी द्रव्यों की समस्त पर्यायों को एक साथ जानता है । कुंदकंद ने लिखा है
जं तक्कालियमिदरं जाणदि जगवं समतदो सव्वं । अत्थं विचित्त विसमं तं णाणं खाइयं भणियं ।। जो ण विजाणदि जुगवं अत्थे तेकालिके तिहुवणत्थे । णाएं तस्स ण सक्कं उपज्वयं दव्वमेकं वा ।। दव्वमणंतपज्जयमेकमणताणि दव्वजादाणि । ण विजाणदि जदि जुगवं कध सो सव्वाणि ज्वाणादि ।।
-प्रवचनसार १।४७-४६ सवज्ञसिद्धि का दार्शनिक आधार
सर्वज्ञ की उपर्युक्त सैद्धांतिक मान्यता को बाद के दार्शनिकों ने ताकिक आधार देकर सिद्ध किया है। मुख्य आधार अनुमान प्रमाण है । समंतभद्र ने लिखा है
सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षा: कस्यचिद्यथा। अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरितिसर्वज्ञसंस्थितिः ॥
--आप्तमीमांसा, श्लो० ५ सूक्ष्म पदार्थ परमाणु आदि, अन्तरित राम, रावण आदि, दूरार्थ सुमेरु पर्वतादि अग्नि आदि की तरह अनुमेय होने से किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं । इस हेतु से सर्वज्ञ की सिद्धि होती है।
भट्ट अकलंक ने सर्वज्ञता का समर्थन करते हुए लिखा है कि आत्मा में समस्त पदार्थों के जानने की पूर्ण सामर्थ्य है । संसारी अवस्था में उसके ज्ञान का ज्ञानावरण से आवत होने के कारण पूर्ण प्रकाश नहीं हो पाता, पर जब चैतन्य के प्रतिबन्धक कर्मों का पूर्ण क्षय हो जाता है तब उस अप्राप्यकारी ज्ञान को समस्त अर्थों के जानने में क्या बाधा है (न्यायवि० श्लो० ४६५) । यदि अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान न हो सके तो सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिर्ग्रहों की ग्रहण आदि भविष्यकालीन दशाओं का उपदेश कैसे हो सकेगा। ज्योतिर्ज्ञानोपदेश अविसंवादी और यथार्थ देखा जाता है। अत: यह मानना अनिवार्य है कि उसका यथार्थ उपदेश अतीन्द्रियार्थ दर्शन के विना नहीं हो सकता। जैसे सत्य स्वप्न दर्शन इन्द्रिय आदि की सहायता के बिना ही भावी राज्यलाभ आदि का यथार्थ स्पष्ट ज्ञान कराता है तथा विशद है, उसी तरह सर्वज्ञ का ज्ञान भी भावी पदार्थों में संवादक और स्पष्ट होता है। जैसे ईक्षणिकादि विद्या अतीन्द्रिय पदार्थों का स्पष्ट भान करा देती है, उसी तरह अतीन्द्रिय ज्ञान भी स्पष्ट प्रतिभासक होता है (सिद्धिवि० न्यायवि० आदि)।
हेमचंद्र ने लिखा है
१३६ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान