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निर्विकल्पक माना गया है । बौद्धों का कहना है कि प्रत्यक्ष में शब्द-संसृष्ट अर्थ का ग्रहण सम्भव नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष का विषय स्वलक्षण है, और वह क्षणिक है। इमलिए प्रत्यक्ष ज्ञान निर्विकल्पक ही होता है। क्षणभंगवाद
बौद्धों की इस मान्यता की पृष्ठभूमि में उनका दार्शनिक सिद्धान्त क्षणभंगवाद है। 'सर्व क्षणिकम्'- सब कुछ क्षणिक है—इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्यक्ष जिस स्वलक्षण को ग्रहण करता है उसमें कल्पना उत्पन्न हो, इसके पूर्व ही वह नष्ट हो जाता है । इसलिए वह सविकल्पक नहीं हो सकता। इन्द्रियज्ञान में तदाकारता का अभाव
बौद्धों का कहना है कि अर्थ में शब्दों का रहना सम्भव नहीं है और न अर्थ और शब्द का तादात्म्य सम्बन्ध ही है। इसलिए अर्थ से उत्पन्न होन वाल ज्ञान म ज्ञान को उत्पन्न न करने वाले शब्द के आकार का संसर्ग नहीं रह सकता। क्योंकि जो जिसका जनक नहीं होता वह उस के आकार को धारण नहीं कर सकता। जैसे रस से उत्पन्न होने वाला रसज्ञान अपने अजनक रूप आदि के आकार को धारण नहीं करता । इन्द्रियज्ञान केवल नील आदि अर्थ से उत्पन्न होता ह, शब्द से उत्पन्न नहीं होता। इसलिए वह शब्द के आकार को धारण नहीं कर सकता। इस प्रकार शब्द के आकार का धारण न करने के कारण वह शब्दग्राही नहीं हो सकता। जो ज्ञान जिसके आकार नहीं होता वह उसका ग्राहक नहीं हो सकता। अतएव निविकल्पक ज्ञान ही प्रमाण है। निविकल्पक ज्ञान और लोक-व्यवहार
निर्विकल्पक ज्ञान में सविकल्पक ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्ति है। अत: वह उसके द्वारा समस्त व्यवहारों में कारण होता है। निविकल्प प्रत्यक्ष के विषय को लेकर ही पीछे के विकल्प उत्पन्न होते हैं। इसलिए निर्विकल्प प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। बौद्धों के प्रत्यक्ष-लक्षण की सीमक्षा
बौद्धों की इस मान्यता का बौद्धेतर तर्क ग्रन्थों में विस्तार से खंडन किया गया है। भामह ने काव्यालंकार (५.६ पृ० ३२) और उद्योतकर ने न्यायवातिक (१.१.४ पृ० ४१) में दिड्नाग के प्रत्यक्ष लक्षण का तथा वाचस्पति मिश्र की तात्पर्यटीका (पृ० १५४), जयन्त भट्ट की न्यायमंजरी (पृ० ५२), श्रीधर की न्यायकन्दली (पृ० १६०) और शालिकनाथ की प्रकरण-परीक्षा (पृ० ४७) में
१२८ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान