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समुच्चय (१.३७) में इसका खंडन किया है। शान्तरक्षित आदि ने इसी पद्धति का अनुसरण किया है।
जैन परम्परा में अकलंक, विद्यानन्द (तत्त्वार्थश्लो० पृ० १८७ श्लो० ३७), प्रभाचन्द्र (न्यायकु० पृ० ४२-४५, प्रमेय० पृ० २०-२५), अभयदेव (सन्मति० पृ० ५६४), हेमचन्द्र (प्रमाणमी० पृ० २३) तथा देवसूरि (स्याद्वादरत्नाकर पृ० ३८१) ने ज्ञातृव्यापार का विग्तार से खंडन किया है । जिसका निष्कर्ष इस प्रकार
१. ज्ञातृव्यापार किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता इसलिए वह प्रमाण
नहीं है। २. प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञातव्यापार सिद्ध नहीं होता। क्योंकि न तो ज्ञात___व्यापार का सम्बन्ध है और न मीमांसक स्वसंवेदन को मानते हैं। ३. अनुमान प्रमाण से भी ज्ञातृव्यापार सिद्ध नहीं होता, क्योंकि उसमें साधन
से साध्य का ज्ञान रूप अनुमान नहीं बनता। ४. अर्थापत्ति से भी ज्ञातव्यापार सिद्ध नहीं होता, क्योंकि अर्थापत्ति के
उत्थापक अर्थ का साध्य के साथ सम्बन्ध नहीं बनता। ५. प्रमाणों से सिद्ध न होने पर भी ज्ञातृव्यापार का अस्तित्व मानना उपयुक्त
नहीं है।
बौद्ध सम्मत प्रत्यक्ष-लक्षण
प्रत्यक्ष-लक्षण की दो धाराएं
वौद्ध न्यायशास्त्र में प्रत्यक्ष-लक्षण की दो परम्पराएं देखी जाती हैं -पहली अभ्रान्त पद-रहित और दूसरी अभ्रान्त पद-सहित। पहली परम्परा के पुरस्कर्ता दिड्नाम हैं तथा दूसरी के धर्मकीर्ति । प्रमाणसमुच्चय (१.३) और न्यायप्रवेश (पृ० ७) में पहली परम्परा के अनुसार लक्षण और व्याख्या है। न्यायबिन्दु (१.४) और उसकी धर्मोत्तरीय आदि वृत्ति में दूसरी परम्परा के अनुसार लक्षण एवं व्याख्यान है। शान्तरक्षित ने तत्त्वसंग्रह (का० १२१४) में दूसरी परम्परा का ही समर्थन किया है । धर्मकीति का लक्षण इस प्रकार है
"प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रान्तम् ।" -न्यायवि० १.४ निर्विकल्पक प्रत्यक्ष
अभ्रान्त पद के ग्रहण या अग्रहण करने वाली दोनों परम्पराओं में प्रत्यक्ष को
भारतीय प्रमाणशास्त्र को जैन दर्शन का योगदान : १२५