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________________ सांख्य का प्रत्यक्ष-लक्षण सांख्य परम्परा में प्रत्यक्ष लक्षण के मुख्य तीन प्रकार हैं। पहला विन्ध्यवासी के लक्षण का, जिसे वाचस्पति ने वार्षगण्य के नाम से निर्दिष्ट किया है (तात्पर्य ● पृ० १५५) । दूसरा ईश्वरकृष्ण के लक्षण का ( सांख्यकारिका ५ ) तथा तीसरा सांख्यसूत्र (१.८९) के लक्षण का । हेमचन्द्र ने प्रमाणमीमांसा ( पृ० २४ ) में वृद्ध-सांख्यों का प्रत्यक्ष लक्षण इस प्रकार दिया है. " श्रोत्रादिवृत्तिरविकल्पिका प्रत्यक्षम् " इति वृद्धसांख्याः । ईश्वरकृष्ण का लक्षण इस प्रकार है "प्रतिविषयाध्यवसायो दृष्टम् ।" -सांख्यका० ५ माठरवृत्ति ( पृ० ४७ ) तथा योगदर्शन व्यासभाष्य ( पृ० २७) में इस प्रत्यक्ष का विस्तार से दिवेचन किया गया है । सांख्यों की मान्यता है कि अर्थ की प्रमिति में इन्द्रियाधीन अन्तःकरण वृत्ति ही साधकतम है, अत: उसी को प्रमाण मानना चाहिए। वह जब विषय के आकार परिणमन करती है तभी अपने प्रतिनियत शब्द आदि का ज्ञान कराती है । इस प्रकार पदार्थ का सम्पर्क होने से पहले इन्द्रियों के द्वारा अन्तःकरण का विषयाकार होने से वृत्ति ही प्रमाण है । योगदर्शन व्यासभाष्य में लिखा है - "इन्द्रियप्रणालिकया वाह्यवस्तूपरागात् सामान्यविशेषात्मनोऽर्थस्य विशेषावधारणप्रधानावृत्तिः प्रत्यक्षम ।" — योगद० व्यासभा० पृ० २७ उक्त वृत्ति की प्रक्रिया के विषय में सांख्यप्रवचनभाष्यकार ने लिखा है"अज्ञेयं प्रक्रिया इन्द्रियप्रणालिकया अर्थसन्निकर्षेण लिंगज्ञानादिना वा आदी बुद्धेः अर्थाकारा वृत्तिः जायते ।" सांख्यप्र० भा० पृ० ४७ सांख्य के प्रत्यक्ष की समीक्षा बौद्ध, जैन तथा नैयायिक तार्किकों ने सांख्यों के प्रत्यक्ष लक्षण का खण्डन किया है । बौद्ध तार्किक दिङ्नाग ने प्रमाणसमुच्चय (१.२७) में, नैयायिक उद्योतकर ने न्यायवार्तिक ( पृ० ४३ ) में, जयन्तभट्ट ने न्यायमंजरी ( पृ० १०६ ) में तथा जैन तार्किक अकलंक ने न्यायविनिश्चय (१.१६५ ) में, विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ( पृ० १८७) में, प्रभाचन्द्र ने न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ४० ४१ ) और प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० १९) में, देवसूरि ने स्याद्वादरत्नाकर ( पृ०७२ ) में तथा हेमचन्द्र ने प्रमाणमीमांसा ( पृ० २४ ) में इन्द्रियवृत्ति का विस्तार से निरास किया है, जिसका संक्षिप्त सार यह है १. अन्तःकरणवृत्ति अचेतन है, इसलिए वह पदार्थ को जानने में साधकतम भारतीय प्रमाणशास्त्र को जैन दर्शन का योगदान : १२५
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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