SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुण, कर्म आदि पदार्थों के साथ संयुक्तसमवाय सन्निकर्ष है। ३. संयुक्तसमवेतसमवाय सन्निकर्ष : घट आदि में समवाय सम्बन्ध से रहने वाले गुण, कर्म आदि में समवाय सम्बन्ध से रहने वाले गुणत्व, कर्मत्व आदि के साथ संयुक्तसमवेतसमवाय सन्निकर्ष है। ४. समवाय सन्निकर्ष : श्रोत का शब्द के साथ समवाय सन्निकर्ष है। क्योंकि कान के छिद्र में रहने वाले आकाश का ही नाम श्रोत्र है। शब्द आकाश का गुण है, इसलिए वहां समवाय सन्निकर्ष से रहता है। ५. समवेतसमवाय सन्निकर्ष : शब्दत्व के साथ समवेतसमवाय सन्निकर्ष है। ६. विशेषण विशेष्यभाव सन्निकर्ष : यह घर घटाभाव वाला है। इसमें विशेषणविशेष्यभाव सन्निकर्ष है, क्योंकि घर विशेष्य है और उसका विशेषण घटाभाव है। प्रत्यक्षज्ञान में सन्निकर्ष की प्रवृत्ति-प्रक्रिया (न्यायमं० पृ० ७४) प्रत्यक्षज्ञान चार, तीन अथवा दो के सन्निकर्ष से उत्पन्न होता है । बाह्य रूप आदि का प्रत्यक्ष चार के सन्निकर्ष से होता है। आत्मा मन से सम्बन्ध करता है, मन इन्द्रिय से, इन्द्रिय अर्थ से । सुखादि का प्रत्यक्ष तीन के सन्निकर्ष से होता है। इसमें इन्द्रिय काम नहीं करती । योगियों को जो आत्मा का प्रत्यक्ष होता है, वह दो के सन्निकर्ष से होता है। वह केवल आत्मा और मन के सन्निकर्ष से होता है। नैयायिकों के प्रत्यक्ष-लक्षण की समीक्षा नैयायिकों के इस प्रत्यक्ष लक्षण का निरास जैन तार्किकों ने विस्तार के साथ किया है (न्यायकुमु० पृ० २५-३२, प्रमेयक० पृ० १४-१८)। संक्षेप में वह इस प्रकार है - १. वस्तु का ज्ञान कराने में सन्निकर्ष साधकतम नहीं है, इसलिए वह प्रमाण नहीं है। जिसके होने पर ज्ञान हो तथा नहीं होने पर न हो, वह उसमें साधकतम माना जाता है। सन्निकर्ष में यह बात नहीं है। कहीं-कहीं सन्निकर्ष के होने पर भी ज्ञान नहीं होता । जैसे घट की तरह आकाश आदि के साथ भी चक्षु का सन्निकर्ष रहता है, फिर भी आकाश का ज्ञान नहीं होता। अतएव सन्निकर्ष प्रमाण नहीं है। २. सभी इन्द्रियां छूकर जानती हों, यह बात नहीं है। चक्षु छूकर नहीं जानती। यदि छूकर जानती, तो आंख में लगे हुए अंजन को देखना चाहिए, किन्तु नहीं देखती। इसी प्रकार यदि छूकर जानती तो ढकी हुई वस्तु को नहीं जानना चाहिए, पर ऐसा नहीं है। कांच आदि पारदर्शी द्रव्य से ढंकी हुई वस्तु को वह जान लेती है। अतएव चक्षु प्राप्यकारी नहीं है। जैन दार्शनिकों ने चक्षु के प्राप्यकारित्व का विस्तार से खण्डन किया है (तत्वा० रा० वा० पृ० ४८, न्यायकु० भारतीय प्रमाणशास्त्र को जैन दर्शन का योगदान : १२३
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy