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सकलकीर्ति के सभी काव्यों में करुणा, दया, त्याग, प्रेम, शांति एवं लोक-मंगल का आदर्श गन्निहित है। उनके काव्यों में अर्थ और काम रूप पुरुषार्थद्वय का भी यथास्थान विवेचन किया गया है किन्तु अर्थ और काम धर्म से नियमित होने चाहिए। दूसरे शब्दों में धर्म से अनुप्राणित अर्थ और काम का उपभोग लोक-मंगलकारी होता है । अपरिग्रहवाद एवं ब्रह्मचर्य-अणुव्रत इसी बात के द्योतक हैं । वस्तुतः धर्म ही हेयोपादेय का ज्ञान कराता है । अतः काव्य में इसका प्राधान्य नितांत आवश्यक है। वक्रोक्तिजीवितकार', काव्यप्रकाशकार' आदि साहित्यशास्त्रियों ने भी काव्य में धर्म-पुस्पार्थ की आवश्यकता पर बल दिया है।
कवि ने अनेक सुन्दर पात्रों की सृष्टि की है। ये पात्र यथार्थ से आदर्श की ओर प्रयाण करने वाले हैं। कुछ खल-पात्र भी अपनी वैयक्तिक विशेषताएं लेकर काव्यरंगमंच पर आ धमकते हैं। इस प्रकार सारे काव्यगुणों एवं दुर्गुणों के संघर्ष को बतलाकर गुणों की दुर्गुणों पर विजय का सिंहनाद करते प्रतीत होते हैं। राजपुर के राजा मारिदत्त दाता, भोक्ता, कला-मर्मज्ञ एवं चक्रवर्ती सम्राट हैं
"दाता भोक्ता कलायुक्तो लक्षणन्वितनविग्रहः । बहुसंपत्परीवारो धीर - सामंत - सेवितः ।।"
___--भ० सकलकीर्ति, यशोधरचरित, सर्ग १, श्लोक ३० इसी प्रकार अवन्ती के राजा कीत्यौ ध का निर्मल चरित्र भी अनुकरणीय
"त्यागीभोगीव्रती दक्षो नीतिमार्गविशारदः । दृगादिसद्गुणोपेतो जिनभक्तो दयाधीः ।।"
--वही, सर्ग २, श्लोक २४ किन्तु दुष्ट भैरवानंद समस्त दुगुर्गों एवं आडम्बरों की साक्षात्मूर्ति है----
धर्मविवेकादिहीनस्तादृक्जनान्वितः।
स्वेच्छाचारयुतो दुष्ट: सदाक्षसुखलोलुपः ॥ जटाजूटशिरोदण्डकरश्चर्मास्थिमस्मभिः ।
भूषितो याति रौद्रात्मा विषयासक्तधी: शठः ।। कापालिको दयाहीनो भैरवानंदनामभाक् । आडम्बरयुतस्तस्मिन् पुरे यातिग आगतः ।।
- वही, सर्ग १, श्लोक ३१, ३२, ३४ प्रकृतिचित्रण से काव्य का बहुत घनिष्ठ संबंध होता है। कोई भी कवि प्रकृति की प्रेरणा के बिना काव्य-निर्माण नहीं कर सकता। प्रकृति का मनुष्य की अंत:१. धर्मादिसाधनोपायः सुकुमारक्रमोदितः । काव्यबं? भिजातानां हृदयाह लादकारकः ॥
-वक्रोक्तिजीवितम् २. 'काव्यं...शिवेतरक्षतये' इत्यादि ।
६४ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान