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अत्याचार का विस्तृत एवं सूक्ष्म विवेचन उनके मूलाचार-प्रदीप में हुआ है। जैन दर्शन __ दर्शन का अर्थ है दृष्टि विशेष अर्थात् विचार या चिंतन । जैन दर्शन के विचार या चितन का सार स्याद्वाद है । स्याद्वाद को समझने के पूर्व तत्त्वज्ञान आवश्यक है। ये तत्त्व हैं
“जीवाजीवासुवा वंध: संवरो निर्जरा मोक्षः। इति सप्रैव तत्त्वानि प्रोक्तानि श्री जिनेशिना ।"
__-भ० सकलकीति, मल्लिनाथपुराण, परिच्छेद ७, श्लोक २२ जीव चैतन्य लक्षण है। अजीव में चैतन्य का अभाव होता है। अजीव तत्त्व पांच प्रकार का होता है -- पुद्गल (Matter), धर्म, अधर्म, आकाश और काल । पुण्य और पाप के आगमद्वार को आस्रव कहते हैं। आत्मा में कर्म परमाणुओं के प्रवेश को बंध कहते हैं । पुण्यपापागमद्वारभूत आस्रव को रोक देना संवर कहलाता है। कर्मों के एक भाग का क्षय निर्जरा एवं कृत्स्न कर्मों के क्षय को मोक्ष कहते हैं। इन सबका विस्तृत विवेचन सकलकीति के ग्रंथों में यत्र-तत्र उपलब्ध होता है।
भावपक्ष
कवि की चेतना का संबंध रागात्मक होता है। उसकी अंत:सलिला काव्यरूप में प्रवाहित होकर अनेक भव्य-जीवों के कर्म-मलों का प्रक्षालन कर देती है। काव्यात्मा का शाश्वत प्रदीप प्रत्येक अध्येता का मार्गदर्शन करता है। शारीरिक बुभुक्षा की शांति तो भोजनादि मे हो जाती है किंतु हृदय की भूख-भाव-पदार्थों के साध्यवसायित होने पर ही बुझती है। सत्काव्य सहृदय का सात्विक भोजन है। सात्विक भाव सत्कवि का सच्चा लक्षण है। जितना बड़ा महाकवि होता है वह समष्टि के साथ उतना ही एकरस हो जाता है। सकलकी ति ऐसे ही महाकवि थे जिनकी अंतश्चेतना चराचर सृष्टि के मंगल की उत्कट अभिलाषा से तरंगायित थी। फलतः अनेक लोक-मंगलकारी काव्यों की सृष्टि हुई। __इनके समस्त काव्यों में शांत रस विराजमान है। यह शांतरस की पुण्य सलिला इस कलि-युग की घोर अशांति को बहा ले जाने में सुतरा समर्थ है। आवश्यकता है इसके रस-पान करने की। एक बार चसका लग जाए तो आजीवन उसका अमिट प्रभाव पड़े विना नहीं रह सकता। इसीलिए कवि ने केवल काव्यसृजन में अपने जीवन की इतिश्री नहीं समझी, अन्यान्य काव्यों के अध्ययन, प्रचारप्रसार एवं संरक्षण के भी अनेक उपाय किए।
१ दे० शांतिनाथपुराण, परिच्छेद ८ ।
भट्टारक सकलकीर्ति का संस्कृत चरित-काव्य को योगदान : ६३