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करना भी है। संभवत: इसीलिए जैन-कवियों ने लौकिक कथाओं को श्रामणिक सांचे में ढाल दिया । आ० सकलकीर्ति ने अपने चरितकाव्य के अध्ययन के उद्देश्य के संबंध में आदिपुराण में निम्न विचारोद्गार प्रकट किए हैं-"येन श्रुतेन सम्यानां रागद्वेषादयोऽखिला दोषा नश्यंतिमोहेन सार्द्ध ज्ञानादयो गुणाः ॥ संवेगाद्याश्च वर्द्धते जायते भावनारुचिः दानपूजातपोध्यानव्रतादिमोक्षवत्भसु ।।”
- आदिपुराण, सर्ग १, श्लोक ३३-३४ उक्त कथन से यह स्पष्ट होता है कि आचार्य की दृष्टि में काव्य का प्रयोजन धर्म तत्त्व का प्रतिपादन करना है । क्योंकि इससे पुण्यास्रव होता है । काव्य का धर्मतत्त्व ही समष्टि का मंगल करने वाला होता है । अतः काव्य के साथ धर्म का संबंध अत्यंत घनिष्ठ होना चाहिए। विना धर्म-तत्त्व के काव्य में सौंदर्य नहीं आ सकता और उसके अभाव में शिवत्व का भी अभाव हो जाता है । अत: काव्य में धर्म रूप तत्त्व का संपुट दिए विना उसके 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' की कल्पना आकाशपुष्प की भांति निराधार है । वस्तुतः धर्म कथा ही काव्य का प्राण है जो स्वर्मुक्ति प्रदान करती है।' इसके विपरीत कुकथा होती है, जिसके श्रवण से राग उत्पन्न होता है एवं विरक्ति के भाव नष्ट हो जाते हैं । फलतः आर्त्त एवं रौद्र-ध्यान से व्यक्ति नाना पापों का बंध करता है । उसका चित्तपाप प्रवाह-पूर में डूबकर पथभ्रष्ट हो जाता है । यही बात अन्यत्र भी कही गयी है।
"चित्त नदी नामोभयतो वाहिनी वहति कल्याणाय, वहति पापायच । "
कथानक
आ० सकलकीर्ति ने अपने चरितकाव्यों का कथानक जैन परंपरा में अतिप्रसिद्ध तीर्थंकरों एवं महापुरुषों के चरित से संबद्ध किया है। उन्होंने पुराणसारसंग्रह में सभी तीर्थंकरों एवं शलाका-पुरुषों के चरित का सार संगृहीत कर दिया है । यह ग्रंथ एक प्रकार से समस्त जैन - महापुरुषों के जीवन चरित के ज्ञान के लिए गाइड का काम करता है । उनके भगवान् ऋषभदेव, शांतिनाथ, मल्लिनाथ, नेमिजिन, पार्श्वनाथ और वर्द्धमान - इन छह तीर्थकरों के तथा धन्यकुमार, सुदर्शन, सुकुमाल, यशोधर, श्रीपाल और जंबू - इन छह महापुरुषों के स्वतंत्र चरितकाव्य संस्कृतसाहित्य की श्रीवृद्धि में पर्याप्त योगदान दे रहे हैं । किन्तु दुर्भाग्य से अभी तक शांतिनाथपुराण, वर्द्धमानचरित, धन्यकुमारचरित एवं सुकुमालचरित के अति१. यस्यांव्रजन्ति निर्वाणं यतमस्तपसां बलात् । नाकंकेचिच्च साज्ञेयाकया स्वर्मुक्तिदायिनी । " - भ० सकलकीर्ति, आदिपुराण, सगं १, श्लोक ५६
२. वही, सगं १, श्लोक ६५-६७ ।
भट्टारक सकलकीर्ति का संस्कृत चरित-काव्य को योगदान : ६१