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भट्टारक सकलकीर्ति का संस्कृत
चरित-काव्य को योगदान
डॉ. बिहारीलाल जैन
दिगम्बर जैन-संप्रदाय में भट्टारकों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। पन्द्रहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक का काल भट्टारकों का स्वर्ण-युग है। भ० सकलकीर्ति का स्थितिकाल लगभग सन् १३८६ ई० से सन् १४४२ ई० तक है।' ये गुजरात में अणहिलपुर पट्टण के निवासी थे। किन्तु इनकी शिक्षा-दीक्षा राजस्थान में चित्तौड़ के पास नैणवां ग्राम में गुरु पद्मनंदि के सान्निध्य में सम्पन्न हुई। ये एक योग्य गुरु के सुयोग्य शिष्य थे। साहित्य-साधना इनके जीवन का प्रमुख उद्देश्य था। यही कारण है कि इतने अल्प समय में इन्होंने निम्नलिखित संस्कृत एवं हिन्दी (राजस्थानी) रचनाएं कीसंस्कृत रचनाएं
१. आदिपुराण, २. पुराणसारसंग्रह, ३. शांतिनाथचरित, ४. मल्लिनाथचरित, ५. नेमिजिनचरित, ६. पार्श्वनाथपुराण, ७. वर्द्धमानचरित, ६. धन्यकुमारचरित, ६. सुदर्शनचरित, १०. सुकुमालचरित, ११. यशोधरचरित, १२. श्रीपालचरित, १३. जंबूस्वामीचरित, १४. प्रश्नोत्तर-श्रावकाचार, १५. मूलाचारप्रदीप, १६. सिद्धांतसारदीपक, १७. तत्वार्थसार, १८. कर्म-विपार्क, १६. सुभाषितावली, २०. अष्टाह निकापूजा, २१. सौलहकारणपूजा, २२. गणधरवलयपूजा, २३. पंचपरमेष्ठीपूजा, २४. परमात्मराजस्तोत्र, २५. व्रतकथाकोष ।
१. हरषी सुणीय सुवाणी पालई अन्य उअरि सुपर । चोउद त्रिताली प्रमाणि पूरइ दिन पुत्र जनमीउ ।।
-सकलकीतिरास, वस्तु २, पद्य १४ एवं जैन ग्रंथ प्रशस्तिसंग्रह, परमानंद शास्त्री, प्रस्तावना, पृ० ११
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