________________
[४०]
इसी पवित्र स्थान पर हुआ था- यहीं पर अनादिमिथ्यादृष्टियों के पापमल को धोकर जिनेन्द्रवीर ने उन्हें अपने शासन का अनुयायी बनाया था । श्रेणिक सा शिकारी राजा और कालसौकरिपुत्र जैसा कसाई का लड़का भगवान् की शरण में आये और जैनधर्म के अनन्य उपासक हुए थे। उनका आदर्श यही कहता है कि जैनधर्म का प्रचार दुनिया के कोने-कोने में हर जाति और मनुष्य में करो। किन्तु राजगृह भ० महावीर से पहले ही जैनधर्म के संसर्ग में प्रा चुका था। तीसवें तीर्थङ्कुर श्री मुनिसुव्रतनाथजी का जन्म यहीं हुमा था, यहीं उन्होंने तप किया था और नीलवन के चंपकवृक्ष के तले वह केवलज्ञानी हुए थे। मुनिराज जीवन्धर, श्वेतसुन्दा, वैश ख, विद्युच्चर, गन्धमादन, प्रीतिकर, धनदत्तादि यहां से मुक्त हुए और अन्तिम केवली जम्बूकुमार भी यही से मुक्त हुये थे। तीर्थरूप में राजगह की प्रसिद्धि भ० महावीर से पहले की हैं। सोपारा (सूरत के निकट) से एक प्रायिका संघ यहां की वन्दना करने ईवी की. प्रारम्भिक अथवा पूर्व शताब्दियों में आया था। धीवरी पूतिगंधा भी उस संघ में थी। वह क्षुल्लिका हो गई थी और यहीं नीलगुफा में उन्होंने समाधिमरण किया था। निस्संदेह यह स्थान पतितोद्धारक है और बहुत ही रमणीक है । वहां कई कुण्डों में निर्मल गरम जल भरा रहता है, जिनमें नहाकर पंच पहाड़ों की वन्दना करना चाहिये । सबसे पहले विपुलाचल पर्वत आता है, जिस पर चार जिन मंदिर हैं । भ० मुनिसुब्रतनाथ के चार कल्याणकों का स्मारक इसी पर्वत पर है। नया एक मन्दिर है। यहां से दूसरे रत्नगिरि पर्वत पर जाना चाहिए, जिस पर तीन मन्दिर है। उपरांत उदयगिरि पर जाना चाहिये। यह पर्वत बहुत ही उत्तम और मनोहर है। इस पर दो मंदिर है। यहाँ दो प्राचीन दिगम्बर मन्दिर भी खुदाई में निकले हैं। इनकी मूर्तियां नीचे लाल मन्दिर में पहुंचा दो गई हैं। यहां से तलहटी में होकर चौये श्रमणगिरिपर जावें ।