________________
[=]
कर लेने मात्र से ही बहुधा पवित्र हुआ माना जाता है, किन्तु यह धारणा गलत है। बाहरी शरीर-मल के धुलने से आत्मा पवित्र नहीं होती है । श्रात्मा तब ही पवित्र होती है जबकि क्रोधादि अन्त र्मल दूर हों । अतएव तीर्थ वही कहा जा सकता है और वही तीर्थ वन्दना हो सकती है, जिसकी निकटता में पाप-मल दूर होकर ग्रन्तः रंग शुद्ध हो। जिन मार्ग में वही तीर्थ बन्दना है, जिसके दर्शन और पूजन करने से पवित्र उत्तम क्षमादि धर्म, विशुद्ध सम्यग्दर्शन, निर्मल संयम और यथार्थ ज्ञानकी प्राप्ति हो, जहां से मनुष्य शान्तिभाव का पाठ उत्तम रीति से ग्रहण कर सकता है, वह ही तीर्थ है ! जैन मत के माननीय तीर्थ उन महापुरुषों के पतित पावन स्मारक हैं जिन्होंने आत्म शुद्धि की पूर्णता प्राप्त की हैं। लौकिक शुद्धि विशेष कार्यकारी नहीं हैं । साबुन लगाकर, मलमल कर नहाने से शरीर भले ही शुद्धसा दीखने लगे, परन्तु लोकोत्तर शुचिता उससे प्राप्त नहीं हो सकती । लोकोत्तर शुचिता तब ही प्राप्त हो सकती है, जब अन्तरङ्ग से क्रोधादि कषाय मैल धो दिया जाय । इसको धोने के लिए धर्म उपादेय है । सम्यग् दर्शन, सम्यग् - ज्ञान और सम्यकचारित्र रूप रत्नत्रय धर्म की आराधना ही लोकोत्तर सुचिता की आधारशिला है । इस रत्नत्रय धर्म के धारक साधुजनों के आधार रूप निर्वाण आदि तीर्थ स्थान हैं। वह तीर्थ ही इस कारण लोकोत्तर शुचित्व के योग्य उपाय हैं, प्रबल निमित्त हैं । इसी लिए शास्त्रों में तीर्थों की गणना मंगलों में की गई है । वह क्षेत्र मंगल है । कैलाश, सम्मेदाचल, ऊर्जयंत ( गिरिनार ), + 'तत्रात्मनोविशुद्वध्यानजलप्रक्षालितकर्ममलकलंकस्य स्वात्म.
न्यवस्थानं लोकोत्तरशुचित्वं तत्साधनानि सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्रतपांसि तद्वन्तश्च साधवस्तधिष्ठानानि च निर्वाणभूम्यादिकानि तत्प्राप्त्यु पापत्वात् शुचिव्यपदेशमन्ति ।' - चारित्रसार पृ० १८०