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________________ [ ११४ ] भीं यहां कई जैनी उच्च पदों पर नियुक्त हैं। मध्यकाल में जैन धर्म की विवेकमई उन्नति करने का श्रेय जयपुर के स्वनामधन्य प्राचार्य तुल्य पंडितों को ही प्राप्त है। यहाँ ही प्रातः स्मरणीय पंडित दीपचन्दशाह, पं० टोडरमल जी, पं० जयचन्द जी, पं० मन्नालाल जी, पं० सदासुख जी संघी, पन्नालाल जी प्रभृति विद्वान हुए हैं, जिन्होंने संस्कृत, प्राकृत भाषाओं के ग्रन्थों की टीकायें करके जैनियों का महान उपकार किया है। जयपुर के मंदिरों में अधिकांश प्रतिमायें प्र यः संवत् १८१६ १८५११८६२ प्रौर १८६३ की प्रतिष्ठित विराजमान हैं। घी वालों के रास्ते में तेरापंथी पंचायती मंदिर सं० १७६३ का बना है, परन्तु उसमें प्रतिमायें १४ वीं १५ वीं शताब्दी की विराजमान हैं । सं० १८५१ में जयपुर के पास फागी नगर में बिम्बप्रतिष्ठोत्सव हुना था। उस / प्रजमेर के भ० भुवनकीर्ति, ग्वालियर के भ० जिनेन्द्रभूषण और दिल्ली के भ० महेन्द्रभूषण सम्मिलित हुए थे । उनकी प्रतिष्ठा कराई हुई प्रतिमायें जयपुर में विराजमान हैं। एक प्रतिमा से प्रगट है कि सं० १८८३ में माघ शुक्ल सप्तमी गुरुवार को भ० श्री "मुन्द्रकीति के तत्वावधान में एक बिम्बप्रतिष्ठोत्सव खास जयपुर नगर में हुआ था। इस उत्सव को छावड़ा गोत्री दीवान बालचन्द्रर्ज के सपुत्र श्री संघवी रामचन्द्र जी प्रौर दीवान भ्रमरचन्द्र जी ने सम्पन्न कराया था । सांगानेर, चाक्सू मादि स्थानों में भी नयाभिराम मन्दिर हैं। जयपुर के दर्शनीय स्थानों को देखकर वापस दिल्ली में प्राकर सारे भारत वर्ष के तीर्थों की यात्रा समाप् करनी चाहिए । इस यात्रा में प्रायः सब ही प्रमुख तीर्थ स्थान मा गये हैं फिर भी कई तीर्थो का वर्णन न लिखा जाना सम्भव है। 'दिगम् बर जैन डायरेक्टरी' में सब तीर्थोों का परिचय दिया हुआ है विशेष वहां से देखना चाहिए
SR No.010323
Book TitleJain Tirth aur Unki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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