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क्षेत्र है। वहां के पर्वत का प्राकार कुण्डलरुप है, इसी कारण इसका नाम कुण्डलपुर पड़ा अनुमान किया जाता है। यहां पर्वत पर मोर तलहटी में कुल ५८ मंदिर हैं । इन मंदिरों में मुख्य मंदिर श्री महावीर स्वामी का है, जिसमें उनकी ४-४।। गज ऊँची और प्राचीन प्रतिमा विराजमान है। यह मंदिर प्रतिमा जी से बाद का सं० १९५७ का बना हुआ है इस स्थान का जीर्णोद्धार महाराजा छत्रसाल जी के समय में ब्र० नेमिसागर जी के प्रयत्न से हरा था यह बात सं० १७५७ के शिलालेख से स्पष्ट है। इस शिलालेख में महाराज छत्रपाल को 'जिनधर्ममहिमायाँ रतिभूतचेतसः' व 'देवगुरुशास्त्रपूजनतत्परः' लिखा है, जिससे उनका जैन धर्म के प्रति सौहार्द्र प्रगट होता है। इस क्षेत्र के विषय में यह किम्बदन्ती प्रसिद्ध है कि श्री महेन्द्रकीर्ति जी भट्टारक घूमते हुए इस पर्वत की मोर निकल पाये । वे पटेरा ग्राम में ठहरे, परन्तु उन्हें जिन दर्शन मही हुए- इसीलिए वह निराहार रहे। रात को स्वप्न में उन्हें कुण्डलपुर पर्वत के मंदिरों का परिचय प्राप्त हुमा । प्रातः एक भील के सहयोग से उन्होंने इन प्राचीन मंदिरों का पता लगाया पौर दर्शन करके अपने भाग्य को सराहा एवं इस तीर्थ को प्रसिद्ध किया। इसका सम्पर्क भ० महावीर से प्रतीत होता है। संभव है 'कि भ० महावीर का समवशरण यहाँ पाया हो। कहते हैं कि जब महमूदगजनवी मंदिर और मूर्तियों को तोड़ता हुमा यहाँ माया पौर महावीर जी की मूर्ति पर प्रहार किया तो उसमें से दुग्प-धारा निकलती देखकर चकित हो, रह गया। कहते हैं कि महाराज छत्रसाल ने भी इस मंदिर और मूर्ति के दर्शन करके जैन धर्म में श्रद्धा प्रगट की थी। उन्होंने इस क्षेत्र का जीर्णोद्धार कराया उनके चढ़ाए हुए बर्तन बगैरह आज भी मौजूद बताये जाते हैं, जिनपर उनका नाम खुदा हुमो है। महावीर जयन्ती को मेला भरता है।
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