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________________ दुसरेके साहित्यको उसकी छाया या अनुसरण सिद्ध करने में जव अपनी शक्ति लगाते हैं तो दूसरी उसका विरोध करने के लिए तैयार रहता है। एक आचार्य अपनी श्रेष्ठता बतलाकर दूसरे आचार्यको समालोचनाके लिए उद्यत रहता है तो समालोच्य आचार्य भी पीछे क्यो रहेगा। समाजके तीर्थोंका प्रश्न भी ऐसा ही है। अपना प्रभुत्व और हक रहे, दूसरेका वहां प्रवेश न हो, यह दृष्टिकोण समाजके दोनो वर्गों को परेशान किये हुए है । फलत सघर्ष भी होते हैं और उनमे विपुल धन-राशि भी व्यय होती है। यदि दोनो वर्ग महावीरके शासनमें आस्था रखते हुए समन्वयका दृष्टिकोण अपना लें तो दोनोकी सम्मिलित शक्ति, दोनोका सम्मिलित साहित्य और दोनोके सम्मिलित तीर्थ समाजके अपार वैभवके सचक तो होगे ही, दोनो अपने विचार और आचारके अनुसार अपनी आस्थाको बनाये रखेंगे तथा सख्याकी दृष्टिसे वे दुगुने कहे जायेगे। जबतक वे अलग-अलग दो भागो या तीन भागो में बंटे रहेंगे तबतक अन्य लोगोको समुचित लाभ नही पहुंचा सकते हैं और न अहिंसा, स्याद्वाद, अनेकान्त एव अपरिग्रह जैसे सिद्धान्तोका विश्वको उचित मात्रामें दर्शन करा सकते है । अत आवश्यक है कि जैन दर्शनमें अनेकान्तवादी या समन्वयवादी दृष्टिकोणपर गम्भीरतासे विचार करें और उसका आचरण कर ऐक्य एव सघटनकी दिशामें प्रयत्न करें। Villful -७५
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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