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फेरता। यही कारण है कि इस व्रतका धारक वीर सेनानीकी भांति अहिंसक माना गया है। यदि कोई व्यक्ति इस व्रतका दुरुपयोग करता है तो किसी भी अच्छी बातका दुरुपयोग हो सकता है । बगालमें 'अन्तक्रिया' का बहुत दुरुपयोग होता था। अनेक लोग वृद्धा स्त्रीको गगा किनारे ले जाते थे और उससे कहते थे-'हरि बोल ।' अगर उसने 'हरि' बोल दिया तो उसे जीते ही गगामे बहा देते थे। परन्तु वह 'हरि' नही बोलती थी, इससे उसे बार-बार पानीमें डुबा-डुबाकर निकालते थे और जब तक वह 'हरि' न बोले तब तक उसे इसी प्रकार परेशान करते थे, जिससे घबराकर वह 'हरि' बोल दिया करती थी और वे लोग उसे स्वर्ग पहुँचा देते थे । 'अन्तक्रिया' का यह दुरुपयोग ही था। समाधिमरणवतका भी कोई दुरुपयोग कर सकता है । परन्तु दुरुपयोगके डरसे अच्छे कामका त्याग नही किया जाता। किन्तु यथासाध्य दुरुपयोगको रोकने के लिए कुछ नियम बनाये जाते हैं । समाधिमरणवतके विषय में भी जैनधर्ममें नियम बनाये गये हैं। अनशन कितना महत्त्वपूर्ण एव आत्मशुद्धि और प्रायश्चित्तका सान है। गांधीजी उसका प्रयोग आत्मशुद्धिके लिए किया करते थे। किन्तु अपनी बात मनवाने के लिए आज उसका भी दुरुपयोग होने लगा है। लेकिन इस दुरुपयोगसे अनशनका न महत्त्व कम हो सकता है और न उसकी आवश्यकता समाप्त हो सकती है।
इस विवेचनसे हम द्रव्य-हिंसा और भाव-हिंसाके अन्तरको सहजमें समझ सकते हैं और भावहिंसाको ही हिसा जान सकते हैं । लेकिन इसका यह मतलब नही है कि जैनधर्ममें द्रव्यहिंसाकी छूट दे दी गई है । यथा शक्य प्रयत्न उसको भी बचानेके लिए उपदेश दिया गया है और आचार-शुद्धिमें उसका बडा स्थान माना गया है। इस द्रव्यहिंसाके हो जानेपर व्रती (गहस्थ और साध दोनो) प्रतिक्रमण और प्रायश्चित्त करते हैं । छोटे-से-छोटे और बडे-से-बड़े सभी जीवोसे क्षमा-याचना को जाती है और प्रायश्चित्तमें स्वय या गुरुसे कृतापराव के लिए दण्ड स्वीकार किया जाता है। जान पड़ता है कि जैनोके इस प्रतिक्रमण
और प्रायश्चित्तका पारसी धर्मपर भी प्रभाव पडा है । उनके यहाँ भी पश्चात्ताप करनेका रिवाज है। इस क्रियामे जो मत्र बोले जाते हैं उनमेंसे कुछका भाव इस प्रकार है-'धातु उपवातुके साथ जो मैंने दुर्व्यवहार किया हो, उसका मैं पश्चात्ताप करता हैं।' 'जमीनके साथ जो मैंने अपराध किया हो, उसका मैं पश्चात्ताप करता हूँ।' 'पानी अथवा पानीके अन्य भेदोंके साथ जो मैंने अपराध किया हो, उसका मैं पश्चात्ताप करता हैं।' 'वृक्ष और वृक्षके अन्य भेदोके साथ जो मैंने अपराध किया हो, उसका मैं पश्चात्ताप करता हैं।' 'महताब, आफताब, जलती अग्नि आदिके साथ जो मैंने अपराध किया हो, मैं उसका पश्चात्ताप करता हूँ।' पारसियोका यह विवेचन जैन-धर्मके प्रतिक्रमणसे मिलता-जुलता है, जो पारसी धर्मपर जैन धर्मके प्रभावका स्पष्ट सूचक है । अत भाव-हिंसाको छोडे बिना जिस तरह कोई व्यक्ति अहिंसक नही हो सकता, उसी तरह द्रव्य-हिंसाको छाडे बिना निदोष आचार-शुद्धि नही पल सकती। इसलिए दोनो हिसाओको बचानेके लिए सदा प्रयत्न करना चाहिए । आचार-धर्मके आधार गृहस्थ और साधु
इस तरह अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच प्रत हैं। इन व्रतोको गृहस्थ और साधु दोनो पालते हैं। गृहस्थ इन्हें एक देशरूपसे और साधु पूर्ण रूपसे पालन करते हैं। गृहस्थके ये व्रत अणुव्रत कहलाते हैं और साधुके महावत । साधुका क्षेत्र विस्तृत होता है। उसकी सारी प्रवृत्तियाँ सर्वजनहिताय और सर्वोदयके लिए होती है । वह ज्ञान, ध्यान और तपमें रत रहता हुआ वर्गसे, समाजसे और राष्ट्रसे बहुत ऊँचे उठ जाता है, उसकी दृष्टिमें ये सव सकीर्ण क्षेत्र हो जाते हैं। समाजसे वह कम लेकर और उसे अधिक देकर कृतार्थ होता है । लेकिन गृहस्थपर अनेक उत्तरदायित्व हैं। अपनी प्राणरक्षाके अलावा उसके कुटुम्बके प्रति, समाजके प्रति, धर्मके प्रति और राष्ट्र के प्रति भी कूछ कर्तव्य है । इन कर्तव्यों
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