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आध्यात्मिक और भौतिक विभूतियोका कारण है। तथा सर्व प्राणियोके अभ्युदय-अभ्युत्थानका हेतु है । समन्तभद्रके इन वाक्योसे यह भले प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि वस्तुत 'वीर-शासन' सर्वोदय तीर्थ कहलाने के योग्य है। उसमें वे विशेषताएँ एव महत्तायें है, जो आज विश्व के लिए वीरशासनकी देन कही जाती है या कही जा सकती हैं । यहाँ वे विशेषतायें भी कुछ निम्न प्रकार उल्लिखित हैंवीरशासनकी विशेषताएँ
१ अहिंसावाद, २ साम्यवाद ३ स्याद्वाद और ४ कर्मवाद । इनके अलावा वीरशासनमें और भी वाद है-आत्मवाद, ज्ञानवाद. चारित्रवाद, दर्शनवाद, प्रमाणवाद, नयवाद, परिग्रहपरिमाणवाद, प्रमेयवाद आदि । किन्तु उन सबका उल्लिखित चार वादोमें ही प्राय अन्तर्भाव हो जाता है। प्रमाणवाद और नयवादके ही नामान्तर हैं और इनका तथा प्रमेयवादका स्याद्वादके साथ सम्बन्ध होनेसे स्याद्वादमें और बाकीका अहिंसावाद तथा साम्यवादमें अन्तर्भाव हो जाता है। १ अहिंसावाद
'स्वय जियो और जीनो दो' की शिक्षा भगवान महावीरने इस अहिंसावाद द्वारा दी थी। जो परम आत्मा, परमब्रह्म, परमसुखी होना चाहता है उसे अहिंसाकी उपासना करनी चाहिये-उसे अपने समान ही सबको देखना चाहिये-अपना अहिंसक आचरण बनाना चाहिये । मनुष्य में जब तक हिंसक वृत्ति रहती है तब तक आत्मगुणोका विकास नही हो पाता-वह वृ खी, अशान्त बना रहता है। अहिंसकका जीवमात्र मित्र बन जाता है-सर्व वरका त्याग करके जातिविरोधी जीव भी उसके आश्रयमें आपसमे हिलमिल जाते हैं। क्रोध, दम्भ, द्वेष गर्व, लोभ आदि ये सब हिंसाकी वृत्तियां हैं। ये सच्चे अहिंसकके पासमें नही फटक पाती हैं। अहिंसकको कभी भय नही होता, वह निर्भीकताके साथ उपस्थित परिस्थितिका सामना करता है, कायरतासे कभी पलायन नहीं करता। अहिंसा कायरोका धर्म नही है वह तो वीरोका धर्म है। कायरताका हिंसाके साथ और वीरताका अहिंसाके साथ सम्बन्ध है । शारीरिक बलका नाम वीरता नही, आत्मबलका नाम वीरता है । जिसका जितना अधिक आत्मबल विकसित होगा वह उतना ही अधिक वीर और अहिंसक होगा। शारीरिक बल कदाचित ही सफल होता देखा गया है, लेकिन सूखी हड्डियो वालेका भी आत्मबल विजयी और अमोघ रहा है ।
अत अहिंसा पर कायरताका लाछन लगाना निराधार है। भगवान् महावीरने वह अहिंसा दो प्रकारकी वणित की है-गहस्थकी अहिंसा, २ साधुकी अहिंसा। गृहस्थ-अहिंसा
गृहस्थ चार तरहकी हिंसाओ-आरम्भी, उद्योगी, विरोधी और सकल्पीमें-केवल सकल्पी हिंसाका त्यागी होता है. बाकीकी तीन तरहकी हिंसाओका त्यागी वह नहीं होता। इसका मतलब यह नहीं है कि वह इन तीन तरहकी हिंसाओंमें असावधान बनकर प्रवृत्त रहता है, नही, आत्मरक्षा, जीवननिर्वाह आदिके लिये जितनी अनिवार्य हिंसा होगी वह उसे करेगा, फिर भी वह अपनी प्रवृत्ति हमेशा सावधानीसे करेगा। उसका व्यवहार हमेशा नैतिक होगा। यही गहस्थधर्म है, अन्य क्रियाएँ-आचरण तो इसीके पालनके दृष्टिबिन्दु हैं। साघु-अहिंसा
साधुकी अहिंसा सब प्रकारकी हिंसामोके त्यागमेसे उदित होती है, उसकी अहिसामे कोई विकल्प नहीं होता। वह अपने जीवनको सुवर्णके समान निर्मल बनानेके लिए उपद्रवो, उपसर्गोको सहनशीलताके