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________________ 'है वीर ? देवीका आना, आकाशमै चलना, चमर छप, सिंहासन आदि विभूतियोका होना तो " छत्र, मायावियो —— इन्द्रजालियो में भी देखा जाता है, इस वजहसे आप हमारे महान् पूज्य नहीं हो सकते और न इन बातोसे आपकी कोई महत्ता या बडाई हैं । - समन्तभद्र स्वामीने ऐसे अनेक परीक्षा वाक्यों द्वारा उनकी और उनके शामनकी परीक्षा की है, जिनका कथन सूत्ररूपसे आप्त-मीमासामें दिया हुआ है। परीक्षा करनेके बाद उन्हें उनमें महत्ताकी जो बात मिली है और जिसके कारण भगवान् वोरको 'महान्' तथा उनके शासनको 'अद्वितीय माना है। यह यह है त्व शुद्धि - शक्तयोरुदयस्प काष्ठा, तुलाव्यतीता जिन शान्तिरूपाम् । अवाविथ ब्रह्मपथस्य नेता महानितीयत्प्रतिवक्तमीशा ॥ युक्त्यनुशासन ४ । "हे जिन आपने शुद्धिकेशानावरण और दर्शनावरण कर्म के क्षयसे उत्पन्न आत्मीय ज्ञान दर्शन के तथा शक्तिके वीर्यान्तरायकर्मके वायसे उत्पन्न आत्मवलके परम प्ररूपको प्राप्त किया है आप अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान और अनन्तवीर्यके धनी हैं। साथ ही अनुपम एव अपरिमेय शान्तिरूपताको अनन्तसुलको भी प्राप्त हैं, इससे आप 'ब्रह्मपथ' के - मोक्षमार्गके नेता हैं और इसीलिए आप महान् है - पूज्य हैं । ऐसा हम कहने — सिद्ध करनेके लिए समर्थ हैं ।' समन्तभद्र वीरशासनको अद्वितीय वतलाते हुए लिखते हैं — दया दम-त्याग समाधि-निष्ठ, नयप्रमाण प्रकृताञ्जसार्थम् । अधृष्पमन्यैरखिलं प्रवादेजिन त्वदीय मतमद्वितीयम् ॥ - - युक्त्यनुशासन 'हे वीर जिन आपका मत - शासन नय और प्रमाणोके द्वारा वस्तुतत्वको बिलकुल स्पष्ट करने वाला है और अन्य समस्त एकान्तवादियोसे अवाध्य है-- असडनीय है, साथमें दया-अहिंसा, दम - इन्द्रियनिग्रहरूप सयम, त्यागदान अथवा समस्त परिग्रहका परित्याग और समाधि - प्रशस्त व्यान इन चारोंकी तत्परताको लिये हुये है, इसलिए वह 'अद्वितीय' है । दयाके बिना दम - सयम नही बन सकता और सयमके बिना त्याग नही और त्यागके बिना समाधि - प्रशस्त ध्यान नही हो सकता, इसीसे वीरशासनमें दया - अहिंसाको प्रधान स्थान प्राप्त है। 'वीर - शासन' की इस महत्ताको बतलाने के बाद समन्तभद्र उसे 'सर्वोदयतीर्थ' भी बतलाते हैंसर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्प सर्वान्तशून्य च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकर निरन्त सर्वोदय तीर्थमिद तवेव || युक्त्यनुशासन 'हे वीर | आपका तीर्थ - शासन अथवा परमागम द्वादशाङ्गश्रुत- समस्त धर्मों वाला है और मुख्य गौणकी अपेक्षा समस्त धर्मोकी व्यवस्थासे युक्त है - एक धर्मके प्रधान होनेपर अन्य बाकी धर्म गौण मात्र हो जाते हैं - उनका अभाव नही होता । किन्तु एकान्तवादियो का आगमवाक्य अथवा शासन परस्पर निरपेक्ष होनेसे सब धर्मों वाला नही है उनके यहाँ धर्मो में परस्पर अपेक्षा न होनेसे दूसरे धर्मोका अभाव हो जाता है और उनके अभाव हो जानेपर उस अविनाभावी अभिप्रेत धर्मका भी अभाव हो जाता है। इस तरह एकान्तमें न वाच्यतत्त्व ही बनता है और न वाचकतत्त्व हो । और इसलिए हे वीर जिनेन्द्र । परस्परकी अपेक्षा रखनेके कारण अनेकान्तमय होने के कारण आपका ही तीर्थ-- शासन सम्पूर्ण आपदामीका मन्त करने वाला है और स्वयं निरत है-अतरहित अविनाशी है तथा सर्वोदयरूप है - समस्त अभ्युदयो - ३६
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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