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________________ दशलक्षण धर्म अग्निके सयोगसे पानी गर्म हो जाता है और उसके अस योगमें वह ठण्डा रहता है । ठण्डापन पानीका निज स्वभाव है, उसका अपना धर्म है और गर्मपना उसका स्वभाव नहीं है, विभाव है, अधर्म है । वस्तुका अपनी प्राकृतिक (स्वाभाविक) अवस्थामें रहना उसका अपना स्वरूप है, धर्म है । पानीको अग्निका निमित्त न मिले तो पानी हमेपा ठण्डा ही रहेगा, वह कभी गर्म न होगा। इसी तरह कर्मये निमित्तसे आत्माम क्रोध, मान, माया और लोम आदि विकार (विभाव) उत्पन्न होते हैं । यदि आत्माके साथ कर्मका सयोग न रहे तो उसमें न क्रोध, न मान, न माया और न लोभादि उत्पन्न होंगे । इससे जान पडता है कि मात्मामें उत्पन्न होनेवाले ये सयोगज विकार है । अतएव ये उसके स्वभाव नही है, विभाव है, अधर्म है। फर्मकी प्रागभाव और प्रध्वंसाभावरूप अवस्थामें वे विकार नहीं रहते । उस समय वह अपने क्षमा, मार्दय, आर्जव, शौच आदि निज स्वभावमें स्थित होता है । यथार्थमें वस्तुका असली स्वभाव उसका धर्म है और नकली-औपाधिक स्वभाव अर्थात विभाव उसका अधर्म है । आचार्य कुन्दकुन्दने स्पष्ट कहा है कि 'वत्यु-सहावोषम्मो' वस्तुका स्वभाव धर्म है और विभाव अधर्म । आत्माका असली स्वभाव क्षमादि है, इसलिए वह उसका धर्म है और क्रोधादि उसका नकली स्वभाव अर्थात विभाव है, अत वह उसका अधर्म है। इस सामान्य आवारपर जीवोको अपने स्वभावमें स्थित रहन का और कर्मजन्य विभावोसे दूर रहने अथवा उनका सर्वथा त्याग कर देनेका उपदेश दिया गया है। आत्मामें कर्मके निमित्तसे यो तो अनगिनत विकार प्रादुर्भूत होते हैं । पर उन्हें दश वर्गों (भागो)में विभक्त किया जा सकता है । वे दश वर्ग ये हैं १ क्रोध वर्ग ६ हिंसा वर्ग २ मान वर्ग ७ काम वर्ग ३ माया वर्ग ८ चोरी वर्ग ४ लोभ वर्ग ९ परिग्रह वर्ग ५ झूठ वर्ग १० अग्रह्म वर्ग मुमुक्षु (गृहस्थ या साधु) जब आत्म-स्वभावको प्राप्त करनेके लिए तैयार होता है तो वह उक्त क्रोधादिको अहितकारी और क्षमादिको हितकारी जानकर क्रोधादिसे निवृत्ति तथा क्षमादिकमें प्रवृत्ति करता है। सर्वप्रथम वह क्षमाको धारण करता है और क्रोधके त्यागका केवल अभ्यास ही नहीं करता, अपितु उसमें प्रगाढता भी प्राप्त करता है। इसी तरह मार्दवके पालन द्वारा अभिमानका, आर्जवके आचरण द्वारा मायाका, शौचके अनुपालन द्वारा लोभका, सत्यके घारण द्वारा झूठका, सयमको अपनाकर हिंसाका, तपोमय वृत्तिके द्वारा काम (इच्छाओं) का, त्यागधर्मके द्वारा चोरीका, आकिंचन्यको उपासना द्वारा परिग्रहका और ब्रह्मचर्य पालन द्वारा अब्रह्मका निरोध करता है और इस प्रकार वह क्षमा आदि दश धर्मोके आचरण द्वारा क्रोध आदि दश आत्म-विकारोको दूर करनेमें सतत सलग्न रहता है। ज्यो-ज्यो उसके क्षमादि गुणोकी वृद्धि होती
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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