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________________ इन तीन घटनामोसे स्पष्टतया उनको निर्मोहवृत्ति का परिचय मिलता है । वे परमोही भी न थे। उनके दर्शनो एव उपदेश सुनने के लिए रोज परिचित-अपरिचित सैकटो व्यक्ति माते-जाते रहते थे और वे अनुभव करते थे कि वर्णीजीकी हमपर कृपा है और हमसे स्नेह करते है। पर वास्तवमें उनका न किसी भी व्यक्तिके प्रति राग था और न किसी सस्था या स्थान विशेपसे अनुराग या। कभी कुछ लोग उनके सामने किसीकी आलोचना भी करने लगते थे, पर वर्णीजी एकदम मौनतटस्थ । कभी भी वे ऐसी चर्चा में रस नही लेते थे। हग्जिन-मन्दिर-प्रवेशपर अपना मत प्रकट करनेपर आवाज आयी कि वर्णीजीकी पीछी-कमण्डलू छीन ली जाय । इसपर उनका सहज उत्तर था कि 'छोन लो पोछो-कमण्डलु, हमारा आत्म-धर्म तो कोई नही छीन सकता ।' ऐसी उनमे अपार सहनशीलता थी। उनके निकट कोई सहायतायोग्य श्रावक, छात्र या विद्वान पहुंच जाये, तो तुरन्त उसकी सहायताके लिए उनका हृदय उमड पडता था और उनका सकेत मिलते ही उनके भवतगण उसकी पूर्ति कर देते थेउनके लिए उनकी थैलियां खुली रहती थी। वस्तुत वे एक महान सन्त थे, महात्मा थे और महात्माके सभी गुण उनमें थे। लोकापवादपर विजय भारविने कहा है कि 'विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषा न चेतासि त एव घोरा ।'-विकारका निमित्त मिलनेपर भी जिनका चित्त विकृत (विकार युक्त) नही होता वे ही धीर पुरुप है। सेठ सुदर्शन, सती सीता जैसे अनेक पावन मनुष्योके लिए कितने विकारके निमित्त मिले, पर वे अडिग रहे-उनके मन विकृत नही हुए, गाधीजीको क्या कम विकारके निमित्त मिले ? किन्तु वे भी अविकृत रहे और लोकमें अभिवन्दनीय सिद्ध हुए। बहुत वर्ष बीत गये । वर्णीजी तव समाज-सेवाके क्षेत्रमे आये ही थे। उन्होने समय-सुधारणा बीडा उठाया। विवाहोमें बारातो और फैनारोमें औरतोके जानेकी प्रथा थी । यह प्रथा फिजुलखर्ची और अपव्ययकी जनक तो थी ही, परेशानी भी बहत होती थी। वर्णीजीने इस प्रथाको बन्द करने के लिए समाजको प्रेरित किया। किन्तु जब उसका कोई असर नही हआ, तो वे स्वय आगे आये। वे गहते थे कि वारातमे तथा फनामि औरतें न जायें, क्योकि परुषोके लिए काफी परेशानियां उठाना पडती है तथा उनकी सुरक्षाका विशप खयाल रखना पड़ता है। अत उनका जाना बन्द किया जाय । परन्तु औरतें यह कब मानने वाली पानीमटोरिया (ललितपुर, उत्तर प्रदेश) मे एक बारात गयी। उसमें औरतें भी गयी। वर्णीजीको जव पता चला तो वे वहाँ पहुँचे और सभी औरतोको वापिस करा दिया । औरतोपर उसकी तीव्र प्रतिक्रिया इई । उन्होने विवेक खोकर वर्णीजोको अनेक प्रकारको गालियां दी, बुरा-भला कहा और खूब कोगा । विन्तु पणजोपर उनकी गालियोका कोई असर नही हआ। उनके मनमें जरा भी रोप या क्रोध नहीं आया । फलत धार-धीरे उयत प्रया बन्द हो गयी। अब तो सारे बन्देलखण्ड में बारात में औरतोका जाना प्राय बन्द ही हो गया है । यह थो वर्णीजीकी सहिष्णुता और सकल्प शक्तिको दृढता । दिल्लीमें चातुर्मास हो रहा था। उमो समयकी बात है। कुछ गमराह भाइयोंने वर्णीजीये विशेष एक परचा निकाला और उनमें उन्हें पूजीपतियोका समर्थव बतलाया । जब यह चर्चा उन तक पहंची, तो ये हनकर बोले-'भइया । मैं तो त्यागी हूँ और स्यागका हो ो त्यागी हूँ और स्यागका ही उपदेश देता है तथा सभीगे-पूर्जीपतियों और जापातपान त्याग कराता है और त्यागी बनाना चाहता है । इसमें फोर-मी दगई है।' वीजा यह -३३७
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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