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________________ नही हुआ । यह समाचार दिल्ली पहुंचा। वहाँसे ला० राजकृष्णजी, हम आदि कई लोग ललितपुर आये। वर्णीजीके दर्शन किये। उनके उस भयानक फोडेको भी देखा। किन्तु वर्णीजीके चेहरेपर जरा भी सिकूडन न थी और न उनके चेहरेसे उसकी पीडा ही ज्ञात होती थी। ला० राजकृष्णजी एक सर्जन डाक्टरको शहरसे ले आये । डाक्टरने फोडाको देखा और कहा कि इसका आपरेशन होगा, अन्य कोई चारा नही है । वर्णीजीने कहा, तो कर दीजिए। डा० बोला 'आपरेशनके लिए अस्पताल चलना होगा।' वर्णीजीने दृढतापूर्वक कहा कि हम 'अस्पताल तो नही जायेंगे, यही कर सकते हो तो कर दीजिए, अन्यथा छोड दीजिए।' ला० राजकृष्णजीने डॉक्टरसे कहा कि ये त्यागी महात्मा है, अस्पताल नही जायेंगें, ऑपरेशनका मब सामान हम यही ले आते हैं। डॉक्टर वहीं (क्षेत्रपालमें) ऑपरेशन करनेको तैयार हो गया । जब डॉक्टरने पुन बीजीसे बेहोश करने की बात कही तो वर्णीजीने कहा कि 'बेहोश करनेकी आवश्यकता नही' और अपना पैर आगे वढा दिया । पौन घटेमें ऑपरेशन हुआ। पर वर्णीजीके चेहरेपर कोई सिकुडन या पीडाका आभास नही हुआ । रोजमर्राकी भांति हम लोगोसे चर्चा-वार्ता करते रहे । यह थी उनकी शरीरके प्रति निर्मोह वृत्ति और जागृत विवेक । हम लोग यह देखकर दग रह गये । १०५ डिग्री बुखार दूसरी घटना इटावाकी है। वर्णीजीका यहाँ भी एक चातुर्मास था। यहां उन्हें मलेरिया हो गया और १०४, १०५ डिग्री तक बुखार रहने लगा। पैरोमें शोथ भी हो गया। उनकी इस चिन्ताजनक अस्वस्थताका समाचार ज्ञात होनेपर दिल्लीसे ला० राजकृष्णजी, ला० फीरोजीलालजी, ला० हरिश्चन्द्रजी, हम आदि इटावा पहुचे । जिस गाडीसे गये थे, वह गाडी इटावा रातमें ३-३।। वजे पहुँचती है। स्टेशनसे तांगा करके गाडीपुराकी जैनधर्मशालामें पहुँचे, जहाँ वर्णीजी ठहरे हुए थे । सब ओर अंधेरा और सभी सोये हुए थे। एक कमरेसे रोशनी आ रही थी। हम उसी ओर बढे और जाकर देखा कि वर्णोजी समयसारके स्वाध्यायमें लीन हैं। सबको वही बुला लिया। ला० फीरोजीलालजीने थर्मामीटर लगाकर वर्णीजीका तापमान लिया। तापमान १०५ डिग्री था और रातके ३।। बजे थे। उनकी इस अद्भुत शरीर-निर्मोह वृत्तिको देखकर हम सभी चकित हो गये और चिन्ताकी लहर में डूब गये। पैरोंकी सूजन तो एकदम चिन्ताजनक थी। किन्तु वर्णीजीपर कोई असर नहीं दिखा। अन्तिम समयकी असह्य पीडा तीसरी घटना उनके अन्त समयकी ईसरीकी है। वे अन्तिम दिनोमें काफी अशक्त हो गये थे। उन्हें उठने, बैठने और करवट बदलने में सहायता करनेके लिए एक महावीर नामका कुशल परिचारक था । अन्य कितने हो भक्त उनके निकट हर समय रहते थे। किन्तु महावीर बडी कुशलता एव सावधानीसे उनकी परिचर्या करता था। इस अशक्त अवस्थामें भी वर्णीजीकी किसी चेष्टासे उनकी पीडाका आभास नही होता था। महसे कभी ओफ तक नही निकलती थी । उस असह्य पीडाको वे अद्भुत सहनशीलतासे सहते थे, वे वेदनासे विचलित नही हए। ऐसी थी उनकी शरीरके प्रति विवेकपूर्ण निर्मोह वृत्ति, जो उनके अन्तरात्मा होने की सूचक थी, बहिरात्मा तो वे जीवन में प्राय कभी नही रहे होगे । प्राथमिक १८ वोंसे वे यद्यपि वैष्णवमतमें रहे, किन्तु उनके मनमें अन्तर्द्वन्द्व और वैराग्य एव विवेक तब भी रहा। इसीसे वे पत्नी, माता आदिके मोहको छोड सके थे और अत्यन्त ज्ञानवती, धर्मवत्सला, धर्ममाता चिरोंजावाईके अनायास सम्पर्कमें आ गये थे।
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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