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को आचार्योके बाद आचार्यकल्प पण्डितप्रवर टोडरमल्लजी, पण्डित जयचन्दजी, गुरु गोपालदासजी, वर्णी गणेशप्रसादजी जैसे विद्वद्रत्नोने जीवनव्यापी कष्टोको सहते हुए त्यागवृत्तिके साथ हम तक पहुँचाया है। विना त्यागके श्रुतसेवा की ही नही जा सकसी है । हमारा विश्वास है कि श्रुतसेवाका लक्ष्य और उसकी ओर प्रवृत्ति रहनेपर विद्वान् धनी न बन सके, तो भूखा भी नही रह सकता। जो श्रुत केवलज्ञान-प्रदाता और परमात्मपद-दाता है उसके उपासक आर्थिक कष्टसे सदा ग्रस्त नहीं रह सकते । सारस्वतका ध्येय स्वामी समन्तभद्रके शब्दोमें 'लोकमें व्याप्त जडता और मूढताको दूरकर जिनशासनका प्रकाश करना' है । भौतिक उपलब्धियां तो उसे अनायास प्राप्त होगी। सरस्वतीका उपासक यो अपरिग्रहमें ही सरस्वतीकी अधिक सेवा करता और आनन्द उपलब्ध करता है ।
समस्याएँ
यो तो जीवन ही समस्याओसे घिरा हुआ है । कोई-न-कोई समस्या जीवनमें खडी मिलती है । किन्तु घोर और वृद्धिमान् उन समस्याओपर काबू पा लेता है। आज देशके सामने कितनी समस्याएं हैं। पर राष्ट्रनेता उन्हें देर-सवेर हल कर लेते है। हमारी समाजमें भी अनेक समस्याएं हैं। उनमें तीर्थक्षेत्रोकी समस्या प्रमुख है। यदि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो समाजें, जो भगवान् महावीर और उनसे पूर्ववर्ती ऋषभादि तेईस तीर्थंकरोकी उपासिका है, आगामी भगवान् महावीरके २५०० वें निर्वाणोत्सवके उपलक्ष्यमें समानताके आधारपर तीर्थक्षेत्रोकी समस्याको सुलझा लें, तो दोनोमे घृणा और भयका भाव दूर होकर पारस्परिक सौहार्द सम्भव है और उस दशामें तीर्थोका विकास तथा समृद्धिकी भी सम्भावना है, जहां विश्वके लोग भारत-भ्रमणपर आनेपर जा सकते हैं और विश्वको उनका परिचय दे सकते हैं।
यहां हमें मुख्यतया विद्वानोकी समस्याओका उल्लेख अभीष्ट है। उनकी समस्याएँ साम्पत्तिक या आधिकारिक नहीं है। वे केवल वैचारिक है। तीन दशक पूर्व दस्सा-पूजाधिकार, अन्तर्जातीय-विजातीयविवाह जैसी समस्याएँ थी, जो समयके साथ हल होती गयी है। दस्साओको समानरूपसे मन्दिरोमें पूजाका अधिकार मिल गया है। अन्तर्जातीय और विजातीय विवाह भी, जो शास्त्र-सम्मत हैं और अनार्यप्रवृत्ति नही हैं, होने लगे हैं और जिनपर अब कोई रोक नहीं रही। स्वामी सत्यभक्त (प० दरबारीलालजी) वर्धा द्वाराकी गयी जैनधर्मके सर्वज्ञतादि सिद्धान्तोकी मीमासा भी दि० जैनसघ द्वारा प्रकाशित 'विरोष-परिहार' जैसे ग्रन्थोंके द्वारा उत्तरित हो चुकी है। डाक्टर हीरालालजी द्वारा उठाये गये प्रश्न भी 'अनेकान्त' (मासिक) आदि द्वारा समाहित किये गये है।
हमें स्वर्गीय प० देवकीनन्दनजी सिद्धान्तशास्त्री द्वारा सुनाये गये उस युगकी याद आती है जब गुरु गोपालदासजीको समाजके भीतर और बाहर जानलेवा जबर्दस्त टक्कर लेना पडती थी, जिसे वे बडी निर्भयता और ज्ञानवैभवसे लेते थे। उस समय सकीर्णता और अज्ञानने समाजको तथा घणा और असहनशील आर्यसमाजको बलात जकड रखा था। गुरुजीने दोनो मोर्णोपर शानदार विजय प्राप्त की थी। शास्त्रार्थ-सघ अम्बालाका, जो अब दि० जैन सघ मथुराके नामसे प्रसिद्ध है, उदय सकीर्णता, अज्ञान, घृणा, असहनशीलता जैसी कुण्ठाओके साथ संघर्ष करने के लिए ही हुआ था और इस दिशामें उसने महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। वेदविद्या-विशारद प० मगलसेनजी अम्बाला, विचक्षण-मेघावी प. राजेन्द्रकुमारजी न्यायतीर्थ जैसे समर्थ
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