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________________ विद्वान् और समाज विद्वान समाजका एक विशिष्ट अङ्ग है। शरीरमें जो स्थान शिर (उत्तमाङ्ग) का है वही समाजमें विद्वान (ज्ञानवान) का है। यदि शरीरमे शिर न हो या रुग्ण हो तो शरीर शरीर न रहकर घड हो जायेगा या उससे सार्थक जीवन-क्रिया नहीं हो सकेगी। सारे शरीरको शोभा भी शिरसे ही है । अत शिर और उसके उपागो-आँख, कान, नाक आदिकी रक्षा एव चिन्ता सदा की जाती है। विद्वान् समाजके धर्म, दर्शन, इतिहास और श्रुतका निर्माण एव सरक्षण करके उसे तथा उसकी सस्कृतिको सप्राण रखता है। यदि विद्वान् न हो या वह चिन्ताग्रस्त हो तो स्वस्य समाज और उसकी उच्च सस्कृतिकी कल्पना ही नही की जा सकती है। पर दुर्भाग्यसे इस तथ्यको समझा नही जाता। यही कारण है कि समाजमें विद्वानकी स्थिति चिन्तनीय और दयनीय है। किसी विद्यालय या पाठशालाके लिए विद्वानको आवश्यकता होनेपर उससे व्यवसायकी मनोवत्तिसे बात की जाती है । सस्था-सचालक उसे कम-से-कम देकर अधिक से अधिक काम लेना चाहता है। कुछ महीने पूर्व एक सस्था-सचालक महानुभावने हमें विद्वान्के लिए उसकी वाछनीय योग्यताओका उल्लेख करते हुए लिखा । हमने उन्हें उत्तर दिया कि यदि उक्त योग्यतासम्पन्न विद्वानके लिये कम-से-कम तीनसी रुपए मासिक दिया जा सके तो विद्वान् भेज देंगे। परन्तु उन्होंने तीनसौ रुपए मासिक देना स्वीकार नहीं किया। फलत वही विद्वान् छहमौ रुपए मासिकपर अन्यत्र चला गया। कहा जाता है कि विद्वान् नही मिलते । विचारणीय है कि जो किसी धार्मिक शिक्षणसंस्थामें दश वर्ष धर्म-दर्शनका शिक्षण लेकर विद्वान् बने और बादमें उसे उसकी श्रुत-सेवाके उपलक्ष्यमें सो-डेढसो रुपए मासिक सेवा-पारिश्रमिक दिया जाय तो वह आजके समय में उससे कैसे निर्वाह करेगा। काश | वह सद्गृहस्थ हो और दो-चार बाल-बच्चे हो, तो वह श्रत-सेवा कर सकेगा या आर्थिक चिन्तामें ही घुलता रहेगा। मत आज हमें इस महत्त्वपूर्ण प्रश्नपर गम्भीरतासे विचारकर श्रुत-सेवकोकी परम्पराको हर प्रयत्नसे जीवित रखना है । यदि हमने इसकी उपेक्षा की तो अगले दश वर्ष में ये टिमटिमाते दीपक भी बुझ जावेंगे और इस दिशामें कोई भी आना पसन्द नहीं करेगा, जबकि लौकिक विद्याके क्षेत्रमें विविध मार्गोमें प्रवेशकर भरपूर आर्थिक लाभ होगा। इससे सस्कृतिको जो क्षति होगी उसकी कस्पना भी नहीं की जा सकती। विद्वान्का दायित्त्व विद्वान्को यह सदा ध्यान रखना आवश्यक है कि वह समाजसे अलग नही है-वह उसका ही अभिन्न अङ्ग है। बिना शिरके जैसे शरीर सज्ञाहीन धड कहा जाता है उसी प्रकार बिना घडके शिर भी चेतनाशून्य होकर अपना अस्तित्व खो देता है। अतः दोनोका अभिन्नत्व ही जीवन-क्रियाका सम्पादक है। ठीक इसी प्रकार बिना विद्वान्के समाज और विना समाजके विद्वान भी अपना अस्तित्व नही रख सकते हैं। फिर समाजमे उसने जन्म लिया है उसके प्रति उसका कृतज्ञभावसे बहुत बडा कर्तव्य है, जिसकी उपेक्षा नही की जा सकती और न उसे भुलाया ही जा सकता है । सस्कृति, धर्म, दर्शन और साहित्यके सरक्षणका जिस तरह समाजका परमावश्यक कर्तव्य है उसी तरह विद्वान्का भी उनके सरक्षणका परम दायित्व है । इस सत्यको हमे नही भूलना है । हमपर उस श्रेष्ठ परम्पराको आगे बढ़ानेका उत्तरदायित्व है, जिस परम्परा -३०८
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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